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फूल मूल को पूछता रहा : नीचे कुछ सुराग मिला?
लेकिन फूल और मूल एक ही हैं। वह जो नीचे चली गई है जड़ गहरे अंधेरे में पृथ्वी के, गहन गर्भ में, और वह जो फूल आकाश में उठा है और खिला है हवाओं में गंध को बिखेरता, सूरज की किरणों में नाचता-ये दो नहीं हैं।
मैंने सुना है, एक केंचुआ सरक रहा था कीचड़ में। वह अपनी ही पूंछ के पास आ गया, मोहित हो गया। कहा : प्रिये, बहुत दिन से तलाश में था, अब मिलन हो गया!' उसकी पूंछ ने कहा : अरे गढ़! मैं तेरी ही पूंछ हूं।' वह समझा कि कोई स्त्री से मिलन हो गया है। अकेला था, संगी-साथी की तलाश रही होगी।
___मूल फूल को पूछ रहा फूल मूल को पूछ रहा। दोनों एक हैं। कौन किससे पूछे? कौन किसको उत्तर दे?
'विपत्ति और संपत्ति दैवयोग से ही अपने समय पर आती हैं। ऐसा जो निश्चयपूर्वक जानता है वह सदा संतुष्ट और स्वस्थेंद्रिय हुआ न इच्छा करता है न शोक करता है।'
आपदः संपदः काले दैवादेवेति निश्चयी। तृप्त: स्वस्थेद्रियो नित्यं न वांछति न शोचति।
काले आपक च लपक..:,। समय पर सब होता है। समय पर जन्म, समय पर मृत्यु; समय पर सफलता, समय पर असफलता-समय पर सब होता है। कुछ भी समय के पहले नहीं होता है। ऐसा जो जानता है कि विपत्ति और संपत्ति दैवयोग से समय आने पर घटती हैं, वह सदा संतुष्ट है। फिर जल्दी नहीं, फिर अधैर्य नहीं। जब समय होगा, फसल पकेगी, काट लेंगे। जब सुबह होगा, सूरज निकलेगा, तो सूरज के दर्शन करेंगे, धूप सेंक लेंगे| जब रात होगी, विश्राम करेंगे, आराम करेंगे; सब छोड़-छाड़, डूब जाएंगे निद्रा में। सब अपने से हो रहा है और सब अपने समय पर हो रहा है। अशांति तब पैदा होती है जब हम समय के पहले कुछ मांगने लगते हैं, हम कहते हैं, जल्दी हो जाए।
इसलिए तुम देखते हो, पश्चिम में लोग ज्यादा अशांत हैं, पूरब में कम! हालांकि पूरब में होने चाहिए ज्यादा, क्योंकि दुख यहां ज्यादा, धन की यहां कमी, भूख यहां, अकाल यहां, हजार-हजार बीमारियां यहां, सब तरह की पीड़ाएं यहां। पश्चिम में सब सुविधाएं, सब सुख, वैज्ञानिक, तकनीकी विकास-फिर भी पश्चिम में लोग दुखी; पूरब में लोग सुखी न हों, पर दुखी नहीं। मामला क्या है? एक बात पूरब ने समझ ली, एक बात पूरब को समझ में आ गई है कि सब होता, अपने समय पर होता; हमारे किए क्या होगा? तो पूरब में एक प्रतीक्षा है, एक धैर्यपूर्ण प्रतीक्षा है इसलिए तनाव नहीं।
फिर पश्चिम में धारणा है कि एक ही जन्म है। यह सत्तर-अस्सी साल का जन्म, फिर गए सो गए! तो जल्दबाजी भी है, सत्तर-अस्सी साल में सब कुछ कर लेना है। इसमें आधी जिंदगी तो ऐसे सोने में, खाने-पीने में बीत जाती है, नौकरी करने, कमाने में बीत जाती है। ऐसे मुश्किल से थोड़े से दिन बचते हैं भोगने को, तो भोग लो। गहरी आतुरता है, हाथ कहीं खाली न रह जाएं! समय बीता