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पर बरसता मैं, बरसता है गगन भी
आज रिमझिम मेघ, रिमझिम हैं नयन भी । न मुखरित हो गया, जय हो प्रणय की पर नहीं परितृप्त है तृष्णा हृदय की । पा चुका स्वर, आज गायन खोजता हूं
पा चुका स्वर, आज गायन खोजता हूं मैं प्रतिध्वनि सुन चुका, ध्वनि खोजता हूं
पा गया तन, आज मैं मन खोजता हूं
मैं प्रतिध्वनि सुन चुका, ध्वनि खोजता हूं ।
जो शब्द हैं, वे तो तन की भांति हैं, देह की भांति, उनके भीतर छिपा हुआ जो रस है, वह शब्दों की आत्मा है। जब तुम डोलने लगो, जब तुम्हें मेरी ध्वनि घेरने लगे, तुम मेरी ध्वनि में खोने लगो, मेरी ध्वनि जब तुम्हें नशे की तरह मदमस्त कर दे - तब तुमने प्राण को छुआ, तब तुमने मूल स्वर को छुआ !
वेणुधा! वेणु तुम ऐसी बजाना
विस्मरणकारी कि गत वनप्रांत निर्गत
मैं चलूं पीछे तुम्हारे
मुग्ध अवनत चेतनाहत ।
रूँ तत्सत् तत्सत् सतत
वेणुधा! तुम वेणु ऐसी बजाना
विस्मरणकारी कि गत वनप्रांत निर्गत
मैं चलूं पीछे तुम्हारे
मुग्ध अवनत चेतनाहत ।
जो कह रहा हूं वह तो ऊपर-ऊपर है; जो तुम्हें दे रहा हूं वह कहने से बहुत भिन्न और बहुत गहरे है। शब्द तो तुम्हें उलझाए रखने को हैं, ताकि तुम शब्दों में उलझे रहो और मैं तुम्हारे हृदय के पात्र को भर दूं - भर दूं ओंम तत्सत् से!
शब्द तो तर्कजाल है; जीवन के द्वार वहां से नहीं खुलते। वस्तुतः तर्क के कारण ही बहुत लोग भटके रह जाते हैं।
सुनो मेरे शब्दों को, पर जरा गहरे झांकना । सतह पर ही मत अटके रहना । सतह पर तरंगें हैं, तुम जरा गहरे उतरना, डुबकी लगाना। अगर तुमने मेरे शब्दों में डुबकी लगाई तो तुम शून्य का रस पाओगे। वही उनकी ध्वनि है। और यह तुम्हारे बस में नहीं है कि तुम इसे जबर्दस्ती कर लो। यह सहज होता है तो ही होता है, होता है तो ही होता है।
तो जिसने पूछा है, उसे हो रहा है। 'आनंदतीर्थ' का प्रश्न है। तो अब इसकी आकांक्षा मत करने