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वे सिकंदर को ले गए। सिकंदर सकुचाया। किंकर्तव्यविमूढ़! वह तो एक ही बात जानता था-लड़ना। वे उसे अपने प्रधान के झोपड़े में ले गए। उसका बड़ा स्वागत किया गया फूलमालाओं से। फिर प्रधान ने उसके लिए भोजन बुलाया। सोने की थाली-सोने की ही रोटी! हीरे-जवाहरात जड़े हुए बर्तन-और हीरे-जवाहरातो की ही सब्जी! सिकंदर ने कहा तम पागल हए हो? सोने की रोटी कौन खाएगा! हीरे -जवाहरातो की सब्जी! तुमने मुझे समझा क्या है? आदमी हूं।
उस बूढ़े प्रधान ने कहा। हम तो सोचे कि आप अगर साधारण रोटी से ही तृप्त हो सकते हैं तो अपने देश में ही मिल जाती। इतनी दूर, इतनी यात्रा करके न आना पड़ता! इतना संघर्ष, इतना युद्ध, इतनी हिंसा, इतनी मृत्यु-गेहूं की रोटी खाने को? साधारण सब्जी खाने को? यह तो तुम्हारे देश में ही मिल जाता। फिर क्या तुम पागल हुए हो? इसलिए हमने तो जैसे ही खबर सुनी कि तुम आ रहे हो, बामुश्किल इकट्ठा करके किसी तरह खदानों से सोना, यह सब इंतजाम किया।
एक बात-वह का बोला-मुझे पूछनी है फिर तुम्हारे देश में वर्षा होती है? गेहूं की बालें पकती हैं? घास उगता है? सूरज चमकता है? चांद-तारे निकलते हैं रात में?
सिकंदर ने कहा : पागल हो तुम! क्यों न निकलेगा सूरज? क्यों न निकलेंगे चांद-तारे? मेरा देश और देश जैसा ही देश है।
वह का तो सिर हिलाने लगा और कहा कि मुझे भरोसा नहीं आता। तुम्हारे देश में पशु-पक्षी हैं? जानवर हैं?
सिकंदर ने कहा: निश्चित हैं।
वह हंसने लगा। उसने कहा: तब मैं समझ गया। तुम जैसे आदमियों के लिए तो परमात्मा सूरज को निकालना कभी का बंद कर दिया होता-पशु-पक्षियों के लिए निकालता होगा। वर्षा कभी की बंद कर दी होती तुम जैसे आदमियों के लिए पशु-पक्षियों के लिए करनी पड़ती होगी।
कहते हैं, सिकंदर इस तरह किसी पर हमला करके कभी न पछताया था।
जीवन की किसी न किसी घड़ी में तुम्हें भी ऐसा ही लगेगा। क्या करोगे सोने का? -खाओगे पीयोगे? क्या करोगे धन का? -ओढोगे, बिछाओगे? क्या करोगे प्रतिष्ठा का, सम्मान का, अहंकार का? कोई भी तो उपयोग नहीं है। ही, एक बात निश्चित है, सोने से घिर कर, सोने से मढ़ कर अहंकार में बंद होकर, तुम पर परमात्मा का सूरज न चमकेगा तुम पर परमात्मा का चांद न निकलेगा। तुम्हारी रातें अंधेरी हो जाएंगी; तारे विदा हो जाएंगे। तुम सूखे रेगिस्तान हो जाओगे| फिर उसके मेघ तुम्हारे ऊपर न घिरेंगे और वर्षा न होगी। तुम वंचित हो जाओगे इस भरे-पूरे जगत में। जहां सब है वहा तुम ठीकरे बीनते रह जाओगे। फिर तुम खूब दुखी होओगे और सुख की आशाएं करोगे सुख के सपने देखोगे और दुख भोगोगे।
यही हुआ है। महत्वाकांक्षा ने प्राण ले लिए हैं। और जब तक महत्वाकांक्षा न गिर जाए, कोई व्यक्ति धार्मिक नहीं होता।
आज के सूत्र बड़े अनूठे हैं। ऐसे तो अष्टावक्र की इस गीता के सभी सूत्र अनूठे हैं पर कहीं-कहीं