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आंखों की चित्रपटी में जिसमें मैं आंक न पाऊं। वह आभा बन खो जाते शशि किरणों की उलझन में जिसमें उनको कण-कण में
ढूंढअ पहचान न पाऊं।
एक अनंत प्रतीक्षा चाहिए, महंत प्रतीक्षा चाहिए।
तो गुरु कई बार तुमसे कहता है : अभी हुआ जाता, अभी हुआ जाता, बस होने को ही है! वह सिर्फ इसलिए, ताकि तुम खोज में लगे रहो, ताकि तुम्हारा धैर्य बंधा रहे । 'पहुंचे, पहुंचे गुरु कहता जाता है-'देखो किनारा करीब आ रहा है, पक्षी उड़ते दिखाई पड़ने लगे! देखो दूर किनारे वृक्ष दिखाई पड़ने लगे, अब हम पहुंचते हैं ताकि तुम्हारी हिम्मत बंधी रहे।
तुम्हारी हिम्मत बड़ी कमजोर है। और जैसे ही तुम किसी स्थिति में थिर होने लगते हो, किसी मकान के नीचे घर बनाने लगते हो और किसी पड़ाव को मंजिल समझने लगते हो - तत्त्वा गुरु डेरा उखाड़ देता है। वह कहता है, चलो बस हो गया, अभी मंजिल बहुत है। अभी बहुत दूर जाना है। अभी यहां घर नहीं बना लेना है। ऐसी छिया-छी चलती है। धीरे- धीरे तुम इस राज को समझने लगते हो । अनुभव से ही समझ में आता है। धीरे- धीरे तुम समझने लगते हो कि वास्तविक बात पाना नहीं है, खोजना है। वास्तविक बात पहुंच जाना नहीं है पहुंचने की चेष्टा करते रहना है। वास्तविक बात यात्रा है, मंजिल नहीं। हालांकि मैं समझता हूं तुम्हारी बड़ी जल्दी है किसी तरह मंजिल मिल जाए; कोई चोर दरवाजा हो, वहा से पहुंच जाएं या कोई रिश्वत चलती हो तो किसी द्वारपाल को रिश्वत दे दें और अंदर हो जाएं या कोई शार्टकट! मगर न कोई शार्टकट है, न कोई चोर दरवाजा है, न रिश्वत चलती है। न तुम्हारे पुण्य से कुछ होगा, न तुम्हारी तपश्चर्या से कुछ होगा।
अनंत यात्रा है परमात्मा । परमात्मा मंजिल है, इस भाषा में सोचा कि तुम भूल में पड़ोगे । क्योंकि मंजिल का मतलब है : फिर उसके बाद बैठ गए, फिर कुछ भी नहीं । परमात्मा सतत जीवन है, इसलिए बैठना तो घट ही नहीं सकता, यात्रा होती रहेगी। परमात्मा प्रक्रिया है-वस्तु नहीं । वस्तु की तरह सोचोगे तो भांति होगी, भूल होगी। परमात्मा प्रक्रिया है-चलते रहने में, जीते रहने में, बहते रहने में। जैसे नदी ही जाती है सागर की तरफ और सागर उडू उडु कर नदी की तरफ बहता रहता है-ऐसे ही साधक खोजते रहते परमात्मा को परमात्मा साधकों को खोजता रहता है। यह खेल छिया-छी का है।
जिस दिन समझ में आ जाएगा कि यह खेल है, तनाव समाप्त हो जाएगा, फिर खेल में पूरा मजा आएगा। हम तो ऐसे पागल हैं कि खेल में भी तनाव बना लेते हैं। तुमने देखा दो आदमी ताश खेल रहे हों, कैसा सिर भारी कर लेते हैं, लड़ने-मारने को उतारू हो जाते हैं! तलवारें खिंच जाती हैं शतरंज के खेलों में! लोगों ने एक-दूसरे की हत्या कर दी है शतरंज खेलते हुए। ऐसे पगला जाते हैं! और कुछ भी नहीं है वहां । न हाथी हैं, न घोड़े हैं, न राजा हैं, न कुछ है-लकड़ी के, या बहुत हुए हाथी-वत