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तुम मानस में बस जाओ छिप दुख की अवगुंठन से मैं तुम्हें ढूंढने के मिस परिचित हो लूं कण-कण से तुम रहो सजल आंखों की सित- असित मुकुरता बन कर मैं सब कुछ तुमसे देखू
तुमको न देख पाऊं पर। भक्त कहता है सब तुमसे देखू तुम मेरी आंखों में छिप जाओ; मैं तुम्हारे दवारा ही सब देखूफिर भी तुम्हें न देख पाऊं। और यह खेल चलता रहे।
तुम मानस में बस जाओ छिप दुख की अवगुंठन से मैं तुम्हें ढूंढने के मिस
परिचित हो लूं कण-कण से -ढूंढता फिरूं तुम्हें! और तुम्हें ढूंढने के बहाने...
मैं तुम्हें ढूंढने के मिस तुम्हें ढूंढने के बहाने
परिचित हो लूं कण-कण से! खोजता फिरूं, एक-एक कण में तुम्हें पुकारता फिरूं लहर-लहर में तुम्हें झाकता फिरूं और इस बहाने सारे अस्तित्व से परिचित हो लूँ!
शायद परमात्मा के छिपने का राज और रहस्य भी वही है कि तुम उसे खोजने के बहाने इस अस्तित्व के महारहस्य से परिचित हो जाओ। वह तब तक छिपा ही रहेगा जब तक कि इस जगत के समग्र रहस्य से तुम परिचित नहीं हो जाते। तुम एक जगह उसे खोज लोगे, वह दूसरी जगह छिप जाएगा कि चलो अब दूसरी जगह से भी परिचित हो लो। तुम यहां उसे खोज लोगे, वह वहा छिप जाएगा, ताकि तुम वहा से भी परिचित हो लो। ऐसे वह तुम्हें लिए चलता है, तुम्हें अपने पीछे दौड़ाए चलता है।
जब भक्त समझ पाता है ठीक से कि यह खेल है, चिंता मिट जाती है उसी क्षण। फिर खोजना एक तनाव नहीं रह जाता, एक आनंद हो जाता है। फिर खोजने में कोई अधैर्य भी नहीं होता।
मेरे छोटे जीवन में देना न तृप्ति का कणभर!