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मल-मूत्र के ढेर, अगर वह लगाता ही चला जाता तो कितने ढेर लग जाते, पहाड़ खड़े कर देता। बस इतना ही उसका काम है। पीछे तुम मल-मूत्र का एक पहाड़ छोड़ कर विदा हो जाओगे। इसको तुम अर्थ कहते हो? लेकिन यही अर्थ जैसा मालम पडता है। इसका ही अर्थशास्त्र है।
मैं इसीलिए परमात्मा को अर्थ नहीं कहता, क्योंकि अर्थ देने से ही तो वह अर्थशास्त्र का हिस्सा हो जाएगा। मैं उसे कहता हूं 'अर्थातीत'। वह कोई आवश्यकता नहीं है। और जब तक तुम आवश्यकताओं में उलझे हो, तब तक तुम उस तरफ आंख न उठा सकोगे। इसलिए मैं कहता हूं जब कोई समाज बहुत समृद्ध होता है, तभी धर्म में गति होती है, अन्यथा नहीं होती।
___यह मेरी बात बड़ी मुश्किल में डालती है लोगों को। क्योंकि लोग पूछने लगते हैं 'तो फिर क्या गरीब धार्मिक नहीं हो सकता?' मैं यह नहीं कहता। गरीब भी धार्मिक हो सकता है, लेकिन गरीब समाज कभी धार्मिक समाज नहीं हो सकता। व्यक्तिगत रूप से गरीब भी इतना प्रतिभावान हो सकता है कि धार्मिक हो जाए, जीवन की व्यर्थता को समझ ले; जिसको हम अर्थ कहते हैं, उसकी व्यर्थता समझ ले। तो फिर जो अर्थोतीत है, वही अर्थ हो जाता है। लेकिन वह बड़ी रूपांतरण की, बड़ी क्रांति की बात है। लेकिन समृद्ध समाज निश्चित रूप से धार्मिक हो जाता है।
मेरे देखे तो वही समृद्ध समाज है जो धार्मिक हो जाए। भारत जब अपने स्वर्ण -शिखर पर था, जब जरूरतें पूरी थीं, खलिहान भरे थे, खेतो में फसलें थीं, लोग भूखे न थे, पीड़ित न थे, परेशान न थे, तब धर्म ने ऊंचे शिखर छए, तब भगवदगीता उतरी, तब अष्टावक्र की महागीता उतरी, तब उपनिषद गंजे, तब बुद्ध और महावीरों ने इस देश को जगाया। वह स्वर्ण-शिखर था।
अब वैसा स्वर्ण-शिखर पश्चिम जा चुका है। अब अगर धर्म की कोई भी संभावना है तो पश्चिम में है, पूरब में नहीं है। पूरब के साथ धर्म का अतीत है, पश्चिम के साथ धर्म का भविष्य है। तुमने अपने हाथ गंवाया। तुमने यह सोचकर गंवाया कि क्या रखा है धन में, संपदा में! कुछ भी नहीं रखा है, यह भी सच है। लेकिन जब धन-संपदा होती है तभी पता चलता है कि कुछ भी नहीं रखा है। इतनी सार्थकता उसमें है-यह दिखाने की। और जब तुम्हारे जीवन में सब होता है और तुम पाते हो कुछ भी नहीं हुआ तो पहली दफा एक हूक उठती है कि अब खोजें उसे, जो आवश्यकता नहीं है।
और अनिवार्य तो बिलकुल ही नहीं है परमात्मा। अनिवार्य का तो अर्थ यह होता कि तुम चाहे करो चाहे न करो, हो कर रहेगा। अनिवार्य मौत है, समाधि नहीं। अनिवार्य तो मृत्य है, ध्यान नहीं। अनिवार्य बढ़ापा है, धर्म नहीं। अनिवार्य इतना ही है कि यह जो क्षणभंगुर है, बह जाएगा। शाश्वत आएगा कि नहीं, यह अनिवार्य नहीं है। शाश्वत तो तुम खोजोगे तो आएगा। खोजोगे, भटकोगे, बार-बार पा लोगे और खो जाएगा, बड़ी मुश्किल से आएगा। अनिवार्य तो कतई नहीं है। अनिवार्य का तो यह मतलब है कि तुम बैठे रहो, कुछ न करो, होने वाला है, होकर रहेगा। मौत जैसा होगा परमात्मा फिर, जैसे सभी आदमी मरते हैं, ऐसे सभी आदमी आत्मज्ञान को उपलब्ध हो जाएंगे। नहीं, न तो अनिवार्य है और न आवश्यकता है। आत्मज्ञान खोजने से होगा, गहन साधना से होगा, बड़ी त्वरा से होगा, दाव पर लगाओगे अपने को, तो होगा। आत्मज्ञान भाग्य नहीं है कि हो जाएगा, लिखा