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कहने लगे, कोई तीस-पैंतीस साल पहले की बात है, लाखों पर लात मार दी!
मैंने कहा, यह लात आपने मारी, लेकिन लग नहीं पाई। इसको दोहराते क्यों हैं? तीस-पैंतीस साल की बात गई-बीती हो गई, इसको दोहराते क्यों हैं? वह लाखों का हिसाब अभी भी कायम है? पहले अकड़ कर चलते रहे होंगे कि मेरे पास लाखों हैं, अब अगडु कर चलते हैं कि लाखों पर लात मार दी-अकड़ वहीं की वहीं है! पहली अकड़ से दूसरी अकड़ थोड़ी ज्यादा खतरनाक है। क्योंकि पहली अकड़ तो दिखाई भी पड़ जाती है, दूसरी दिखाई भी नहीं पड़ती, अति सूक्ष्म है।
जनक के लिए वह दरवाजा खुला रखा था इतनी देर तक अष्टावक्र ने, अब उसे भी बंद कर दिया। अब जनक को भागने की कोई जगह नहीं रही। अब तो जागने की ही जगह रही, भागने की कोई जगह नहीं रही। अब तो सीधे सत्य को स्वीकार करना होगा कि या तो हुआ है तो हुआ है या नहीं हुआ है तो नहीं हुआ है। बचने का कोई उपाय नहीं है।
स्वभावादेव ज्ञानानो दृश्यमेतत किंचन। अरे, जिसे सब माया दिखाई पड़ने लगी, उसे कैसा छोड़ना, कैसा पकड़ना!
इर्द ग्राह्यमिदं त्याज्य स किं पश्यति धीरधी:। उसे तो कुछ दिखाई ही नहीं पड़ता कि इसमें पकड़ना और छोड़ना क्या?
धीर-पुरुष ऐसा नहीं कहता कि सोना मिट्टी है। धीर-पुरुष कहता है. सोना सोना है, मिट्टी मिट्टी है; पर दोनों अर्थहीन, दोनों सारहीन। वह कहता है. महल में बैठो तो, महल के बाहर बैठो तो-सब बराबर हैं, दोनों सपने हैं। अमीर का सपना है, गरीब का सपना है; सफल का सपना है, असफल का सपना है दोनों सपने हैं। सपने बदलने से कुछ भी न होगा। एक रात तुमने सपना देखा कि डाकू हो, दूसरी रात सपना देखा कि संत हों-दोनों सपने हैं, दोनों का कोई मूल्य नहीं है। न तुम डाकू हो, न तुम साधु हो।
तुम जब तक अपने को कोई तादात्म्य देते हो तब तक भांति जारी रहेगी। तुम तो परम शून्य हो, तुम तो परम प्रज्ञा हो, तुम तो परम साक्षी हो।
त्याग भी तो कृत्य हुआ जैसे भोग कृत्य है, वैसे त्याग भी कृत्य है। और अष्टावक्र का पूरा क्रांति-सूत्र यही है. कर्ता नहीं, भोक्ता नहीं-साक्षी। छोड़ा, वह भी कर्म हुआ। पकड़ा, वह भी कर्म हुआ। दोनों में तुम कर्ता हो गए, दोनों में अहंकार निर्मित होगा। कृत्य से अहंकार निर्मित होता है। तुम साक्षी हो जाओ।
'जिसने अंतःकरण के कषाय को त्याग दिया है और जो दवंदव-रहित और आशा-रहित है, ऐसे पुरुष को दैवयोग से प्राप्त वस्तु से न दुख होता है और न सुख होता है।'
'जिसने अंतःकरण से कषाय को त्याग दिया,.....। '
अंतःकरण से कषाय को त्यागने का अर्थ है. जिसने जाग कर देख लिया कि कषाय मेरे नहीं, जिसने दीया जला कर देख लिया कि मैं तो सिर्फ प्रकाश हूं और मैं कोई भी नहीं। न क्रोध मेरा, न मोह मेरा| पकड़ने छोड़ने की बात नहीं; इतना जानने की बात है कि दोनों मेरे नहीं। न भोग मेरा,