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रह कर शक्तिशाली होने लगता है।
इसलिए दुनिया में राजनितिज्ञों का एक खेल चलता रहता है। सारे लोकतंत्रीय मुल्कों में दो
होती हैं। हिंदुस्तान अभी भी उतनी अक्ल नहीं जुटा पाया इसलिए यहां व्यर्थ परेशानी होती है। दो पार्टियां होती हैं, एक खेल है। जनता मूर्ख बनती है। उन दो पार्टियों में एक सत्ता में होती है, उसे जो करना है वह करती है; जो गैर-सत्ता में होती है, इस बीच वह अपनी ताकत जुटाती है। अगले चुनाव में दूसरी पार्टी सत्ता में आ जाती है, पहली पार्टी जनता में उतर कर फिर अपनी ताकत जुटाने में लगती है। उन दोनों के बीच एक षड़यंत्र है। एक सत्ता में होता है, दूसरा आलोचक हो जाता
और जनता की स्मृति तो बड़ी कमजोर है। वह पूछती ही नहीं कि तुम जब सत्ता में थे तब तुमने यह आलोचना नहीं की, अब तुम आलोचना करने लगे 1: यही काम तुम कर रहे थे, लेकिन तब सब ठीक था; अब सब गलत हो गया त्र: और ये जो कह रहे हैं, सब गलत हो गया है, जब सत्ता में पहुंच जाएंगे तब फिर सब ठीक हो जाएगा! इनके सत्ता में होने से सब ठीक हो जाता है, इनके सत्ता में न होने से सब गलत हो जाता है। इनकी मौजूदगी जैसे शुभ और इनकी गैर-मौजूदगी अशुभ
यही घटना मन के भीतर घटती है। जो मन का हिस्सा कहता था, 'मत करो समर्पण, मत लो संन्यास', वह बैठ कर देखता है. अच्छा! ले लिया, ठीक। अब क्या हुआ? अब वह बार-बार पूछता है : बताओ क्या हुआ? तो तुम्हारे जो साठ प्रतिशत हिस्से थे मन के, वे धीरे-धीरे खिसकने लगते हैं। कुछ हिस्से उसके पास चले जाते हैं। कई बार ऐसी नौबत आ जाती हैं-फिफ्टी-फिफ्टी, पचासपचास की, तब संदेह उठता है, तब तुम बडे डावाडोल हो उठते हो।
कभी-कभी ऐसा भी हो सकता है कि हालत उलटी हो जाए, समर्पण के पक्ष में चालीस हिस्से हो जाएं और विपरीत में साठ हिस्से हो जाएं तो तुम संन्यास छोड़ कर भागने की आकांक्षा करने लगते हो।
'मुझे अपने समर्पण पर शक होता है।'
समर्पण किया है तो शक होगा ही। क्योंकि समर्पण किया नहीं जा सकता। समर्पण होता है। यह तो प्रेम जैसी घटना है। किसी से प्रेम हो गया, तुम यह थोड़े ही कहते हो कि प्रेम किया हो गया! तो मेरे पास भी दो तरह के संन्यासी हैं-एक, जिन्होंने समर्पण किया है, उनको तो शक सदा रहेगा; एक, जिनका समर्पण हो गया है। शक की बात ही न रही। यह कोई पार्लियामेंट्री निर्णय न था। यह कोई बहुमत से किया न था। यह तो सर्व मत से हुआ था। यह तो पूरी की पूरी दीवानगी में हुआ था-उसको मैं क्याटम छलांग कहता हूं। वह प्रक्रिया नहीं है सीढी सीढ़ी जाने की वह छलांग है। तो जिन मित्र ने पूछा है, उन्होंने सोच कर किया होगा। सोच कर करो तो पूरा हो नहीं पाता। पूरा हो न, तो कुछ हाथ में नहीं आता। हाथ में न आए तो संदेह उठते हैं।
फिर पूछा है कि 'क्या पूरा समर्पण शिष्य को ही करना होता है?'