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विकृत, सब कुरूप, धीरे-धीरे सुंदर हो जाता है। मोक्ष की धारणा ही सौंदर्य की धारणा है सब प्रसादपूर्ण हो जाता है। तब तो पता भी नहीं चलता कि कोई दुख है, कोई पीड़ा है। फिर तो इतनी छोटी बाधा रह जाती है-पारदर्शी, दिखाई भी नहीं पड़ती! अगर ईंट-पत्थर की दीवाल चारों तरफ हो तो दिखाई पड़ती है। कांच की दीवाल, शुद्ध काच की दीवाल, स्फटिक मणियों से बनी है-कुछ बाधा नहीं मालूम पड़ती, आर-पार दिखाई पड़ता है! दीवाल का पता ही नहीं चलता। लेकिन दीवाल अभी है। अगर निकलने की कोशिश की तो सिर टकराएगा।
मुमुक्षा कांच की दीवाल है-दिखाई भी नहीं पड़ती। संसारी की तो वासनाएं बड़ी क्षुद्र हैं, स्थूल हैं, पत्थरों जैसी हैं। संन्यासी की आकांक्षा बड़ी सूक्ष्म है, बड़ी पारदर्शी है और बड़ी सुंदर है-अटका ले सकती है।
___ अगर तुम्हें इतनी भी याद रह गई कि मुक्त होना है तो तुम अभी मुक्त नहीं हुए। और मुक्त होना है, यह वासना अगर मन में बनी है तो तुम मुक्त हो भी न सकोगे। क्योंकि मुक्त होने का कुल इतना ही अर्थ होता है कि अब कोई चाह न रही। मगर यह तो एक चाह बची-और इस चाह सभी बच गया।
इसलिए अष्टावक्र ने बड़ी क्रांतिकारी बात कही. काम, अर्थ से तो मुक्त होना ही, धर्म से भी मुक्त होना। ऐसा कोई सूत्र किसी ग्रंथ में नहीं है। अर्थ और काम से मुक्त होने को सबने कहा है धर्म से भी मुक्त होने को किसी ने नहीं कहा है। अष्टावक्र उस संबंध में बिलकुल मौलिक और अनूठे हैं। वे कहते हैं : धर्म से भी मुक्त होना है, नहीं तो धर्म ही बाधा बन जाएगा। अंततः तो सभी चाह गिर जानी चाहिए।
___ कैसे कहूं कि खत्म हुई मंजिले–फनी मंजिले–फनी का अर्थ होता है शून्य हो जाना।
___ कैसे कहूं कि खत्म हुई मंजिलेफनी कैसे कहूं कि मैं शून्य हो गया?
इतनी खबर तो है कि मुझे कुछ खबर नहीं। इतनी बाधा तो अभी बनी है।
इतनी खबर तो है कि मुझे कुछ खबर नहीं। मगर इतना काफी है। इतनी दीवाल पर्याप्त है। इतनी दीवाल चुका देगी।
हिमगिरि लांघ चला आया मैं, लघु कंकर अवरोध बन गया
क्षण का साहस केवल संशय, अगर मूल में जीवित है भय,