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अष्टावक्र ने जानने की इच्छा को भी अन्य इच्छाओं जैसी बताया हैं : जबकि अन्य ज्ञानी मुमुक्षा की बहुत महिमा बताते हैं। कृपापूर्वक इस पर प्रकाश डालें।
मुमुक्षा का पहले तो अर्थ समझ लें। मुमुक्षा तुम्हारी सारी आकांक्षाओं का संगृहीत होकर परमात्मा की ओर उन्मुख हो जाना है; जैसे छोटी-छोटी आकांक्षाओं की नदियां हैं, छोटे -छोटे झरने हैं, छोटी-छोटी सरिताए हैं, नाले है-ये सब गिर कर गंगा बन जाती है और गंगा सागर की तरफ दौड़ पड़ती है। तुम धन पाना चाहते हो, तुम पद पाना चाहते हो, तुम सुंदर होना चाहते, स्वस्थ होना चाहते, प्रतिष्ठित होना चाहते-ऐसी हजार-हजार आकांक्षाएं हैं। जब सारी आकांक्षाएं एक ही आकांक्षा में निमज्जित हो जाती हैं और तुम कहते, मैं प्रभु को जानना चाहता-तो गंगा बनी। सब झरने, सब छोटे -मोटे नाले इस महानद में गिरे-गंगा चली सागर की तरफ!
लेकिन अंततः तो गंगा को भी मिट जाना पड़ेगा, नहीं तो सागर से मिल न पाएगी। एक घड़ी तो आएगी सागर से मिलने के क्षण में, जब गंगा को अपने को भी मिटा देना होगा। नहीं तो गंगा का होना ही बाधा हो जाएगा। अगर गंगा सागर के तट पर खड़े हो कर कहे कि मैं इतने दूर से आई, इतनी मुमुक्षा इतनी ईश्वर-मिलन की आस को ले कर; मैं मिटने को नहीं आई हूं मैं तो ईश्वर को पाने आई हूं-तो चूक हो गई। तो गंगा खड़ी रह जाएगी किनारे पर और चूक जाएगी सागर से। अंत्तः तो गंगा को भी सागर में गिर जाना है और खो जाना है।
पहले छोटी-मोटी इच्छाएं मुमुक्षा की महा अभीप्सा में गिर जाती हैं, फिर मुमुक्षा की आकांक्षा भी अंततः लीन हो जानी चाहिए। इसलिए परमज्ञानी तो यही कहेंगे कि मुमुक्षा भी बाधा है। यह जानने की इच्छा भी बाधा है। यह मोक्ष की इच्छा भी बाधा है।
मुमुक्षा यानी मोक्ष की इच्छा मैं मुक्त होना चाहता हूं कोई धनी होना चाहता है, कोई शक्तिशाली होना चाहता है, कोई अमर होना चाहता है, कोई मुक्त होना चाहता है लेकिन चाह मौजूद है। निश्चित ही मोक्ष की चाह सभी चाहो से ऊपर है, लेकिन है तो चाह ही। खूब सुंदर चाह है, लेकिन है तो चाह ही। खूब सजी-संवरी चाह है, दुल्हन जैसी नई-नई-लेकिन है तो चाह ही। और चाह बंधन
जब तक मैं कुछ चाहता हूं, तब तक संघर्ष जारी रहेगा : क्योंकि मेरी चाह सर्व के विपरीत चलेगी। चाह का मतलब ही यह है : जो होना चाहिए वह नहीं है; और जो है, वह नहीं होना चाहिए। चाह का अर्थ ही इतना है। चाह में असंतोष है। चाह असंतोष की अग्नि में ही पैदा होती है। और मोक्ष तो तभी घटता है, जब हम कहते हैं. जो है, है; और यही हो सकता है। तत्क्षण विश्राम आ गया। जो नहीं है, उसकी मांग नहीं; जो है, उसका आनंद। संतोष आ गया, परितोष आ गया, तुष्ट हुए