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फिर भीतर बैठ कर पहला कदम है जिक्र का : 'अल्लाह- अल्लाह' कहना शुरू करना। जोर से कहना।
ओंठ का उपयोग करना। एक पांच-सात मिनट तक 'अल्लाह- अल्लाह' जोर से कहना। पाच-सात मिनट में तुम्हारे भीतर रसधार बहनी शुरू होगी, तब ओंठ बंद कर लेना। दूसरा कदम. अब सिर्फ भीतर जीभ से कहना, ' अल्लाह- अल्लाह-अल्लाह! पांच-सात मिनट जीभ का उपयोग करना, तब भीतर ध्वनि होने लगेगी; तब तुम जीभ को भी छोड़ देना, अब बिना जीभ के भीतर ' अल्लाहअल्लाह-अल्लाह' करना। पांच-सात मिनट.. तब तुम्हारे भीतर और भी गहराई में ध्वनि होने लगेगी, प्रतिध्वनि होने लगेगी। तब भीतर भी बोलना बंद कर देना, 'अल्लाह-अल्लाह' वहां भी छोड़ देना। अब तो 'अल्लाह' शब्द नहीं रहेगा, लेकिन 'अल्लाह' शब्द के निरंतर स्मरण से जो प्रतिध्वनि गंजी, वह गज रह जाएगी, तरंगें रह जाएंगी। जैसे वीणा बजते-बजते अचानक बंद हो गई, तो थोड़ी देर वीणा तो बंद हो जाती है, लेकिन श्रोता गदगद रहता है, गज गूंजती रहती है; ध्वनि धीरे- धीरे- धीरे शून्य में खोती है।
तो तुमने अगर पंद्रह-बीस मिनट अल्लाह का स्मरण किया, पहले ओंठों से, फिर जीभ से, फिर बिना जीभ के, तो तुम उस जगह आ जाओगे, जहां दो-चार-पाच मिनट के लिए 'अल्लाह' की गज गूंजती रहेगी। तुम्हारे भीतर जैसे रोआ-रोआ 'अल्लाह' करेगा। तुम उसे सुनते रहना। धीरे- धीरे वह गज भी खो जाएगी।
और तब जो शेष रह जाता है, वही अल्लाह है! तब जो शेष रह जाता है, वही राम है। शब्द भी नहीं बचता, शब्द की अनुगूंज भी नहीं बचती-स्व महाशून्य रह जाता है। सुरति!
'राम' शब्द का उपयोग करो, उससे भी हो जाएगा। 'ओम' शब्द का उपयोग करो, उससे भी हो जाएगा। लेकिन 'अल्लाह' निश्चित ही बहुत रसपूर्ण है। और तुम सूफियों को जैसी मस्ती में देखोगे, इस जमीन पर तुम किसी को वैसी मस्ती में न देखोगे। जैसी सूफियों की आंख में तुम शराब देखोगे वैसी किसी की आंख में न देखोगे। हिंदू संन्यासी ओंकार का पाठ करता रहता है, लेकिन उसकी आंख में नशा नहीं होता, मस्ती नहीं होती।
'अल्लाह' शब्द तो अंगूर जैसा है, उसे अगर ठीक से निचोड़ा तो तुम बड़े चकित हो जाओगे। तुम चलने लगोगे नाचते हुए। तुम्हारे जीवन में एक गुनगुनाहट आ जाएगी।
सुरति, जिक्र, नाम-स्मरण-नाम कुछ भी हों। नाम-रूप की भीड़ जगत में, भीतर एक निरंजन। सुरति चाहिए अंतर्दृग को, बाहर दृग को अंजन। देखे को अनदेखा कर रे, अनदेखे को देखा।
क्षर लिख-लिख तू रहा निरक्षर, अक्षर सदा अलेखा। और वह जो भीतर छिपा है, वह हम ले कर ही आए हैं। उसे कुछ पैदा नहीं करना-उघाड़ना है, आविष्कार करना है। ज्यादा तो ठीक होगा कहना. पुनआविष्कार करना है, रिडिस्कवरी! भीतर रखे -रखे हम भूल ही गए हैं, हमारा क्या है? अपना क्या है? सपने में खो गए हैं, अपना भूल गए हैं।