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संसार का स्वभाव समझो। दिखता है सब-मिलता कुछ भी नहीं। लगता है यह रहा, जरा ही चलने की बात है, थोड़ा प्रयास और! जैसे क्षितिज छूता है, लगता है कुछ मील का फासला है दौड़ जाएंगे, पहुंच जाएंगे आकाश और जमीन जहां मिलते हैं वह जगह खोज लेंगे; फिर वहां से आकाश में चढ़ जाएंगे, लगा लेंगे सीढ़ी, बना लेंगे अपना बेबिलोन, स्वर्ग की सीडी लगा लेंगे-मगर कभी वह जगह मिलती नहीं जहां आकाश पृथ्वी से मिलता है, बस दिखता है कि मिलता है। आभास! जिसको हिंदुओं ने माया कहा है। प्रतीत तो बिलकुल होता है कि यह दिखाई पड़ रहा है आकाश मिलता हुआ होगा दस मील, पंद्रह मील, बीस मील, थोड़ी यात्रा है-लेकिन तुम जितने क्षितिज की तरफ जाते हो, उतना ही क्षितिज तुमसे दूर चलता चला जाता है। दिखता सदा मिला मिला, मिलता कभी भी नहीं।
खुले नयन से सपने देखो, बंद नयन से अपने।
अपने तो रहते हैं भीतर, बाहर रहते सपने। बाहर लगता है मिल जाएगा, और मिलता कभी नहीं। और भीतर लगता है कैसे मिलेगा? और मिला ही हुआ है। ठीक संसार से विपरीत अवस्था है भीतर की। संसार देखना हो तो आंखें बाहर खोलो; सत्य देखना हो तो आंखें भीतर खोलो। बाहर से आंख बंद करने का कुल इतना ही अर्थ है कि भीतर देखो।
नाम-रूप की भीड़ जगत में, भीतर एक निरंजन।
सुरति चाहिए अंतर्दृग को, बाहर दृग को अंजन। बाहर ठीक-ठीक देखना हो तो आंख में हम काजल आजते, अंजन लगाते। बुढ़िया का काजल लगा लेते हैं न, बाहर ठीक-ठीक देखना हो तो। भीतर देखना हो तो भी को ने एक काजल ईजाद किया है। उसको कहते हैं; सुरति, स्मति, जागति, समाधि!
नाम-रूप की भीड़ जगत में, भीतर एक निरंजन।
सुरति चाहिए अंतर्दृग को, बाहर दृग को अंजन। बाहर ठीक देखना हो, आज लो आंख, ठीक-ठीक दिखाई पड़ेगा। भीतर ठीक-ठीक देखना हो तो एक ही अंजन है-निरंजन ही अंजन है! वहां तो एक ही बात स्मरण करने जैसी है, वहां तो एक ही प्रश्न जगाने जैसा है कि मैं कौन हूं? वहां तो एक ही बोध उठने लगे सब तरफ से कि मैं कौन हूं? एक ही प्रश्न गुंजने लगे प्राणों में कि मैं कौन हूं? धीरे- धीरे इसी प्रश्न की चोट पड़ते -पड़ते भीतर के दवार खुल जाते हैं। यह चोट तो ऐसी है जैसे कोई हथौड़ी मारता हो. मैं कौन हूं? मैं कौन
उत्तर मत देना, क्योंकि उत्तर बाहर से आएगा। तुमने जल्दी से पूछा कि मैं कौन हूं? और कहा, अहं ब्रह्मास्मि-तो आ गया उपनिषद बीच में। तुम उत्तर मत देना, तुम तो सिर्फ पूछते ही चले जाना। एक ऐसी घड़ी आएगी, प्रश्न भी गिर जाएगा। और जहां प्रश्न गिर जाता है.. जहां प्रश्न गिर जाता है, वहीं उत्तर है। फिर तुम ऐसा कहते नहीं कि अहं ब्रह्मास्मि ऐसा तुम जानते हो; ऐसा तुम अनुभव करते हो। शब्द नहीं बनते, निःशब्द में प्रतीति होती है।