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जिन आठ अंगों से व्यक्ति ज्ञान को उपलब्ध होता है, बाप ने कहा, तेरे वे नष्ट हुए। अब देखू तू कैसे ज्ञान को उपलब्ध होगा-जिस ज्ञान की तू बात कर रहा है, जिस परम ज्ञान की तू घोषणा कर रहा है?
अगर शास्त्र से नहीं मिलता सत्य तो दूसरा एक ही उपाय है कि साधना से मिलता है। तू कहता है शास्त्र से नहीं मिलता है, चल ठीक, साधना के आठ अंग मैं तेरे विकृत किए देता हूं अब तू कैसे पाएगा?
और अष्टावक्र ने फिर भी पाया। अष्टावक्र के सारे उपदेश का सार इतना ही है कि सत्य मिला ही हुआ है, न शास्त्र से मिलता है न साधना से मिलता है। साधना तो उसके लिए करनी होती है जो मिला न हो। सत्य तो हम लेकर ही जन्मे हैं। सत्य तो हमारे साथ गर्भ से ही है, सत्य तो हमारा स्वरूप-सिद्ध अधिकार है। जन्म-सिद्ध भी नहीं, स्वरूप-सिद्ध अधिकार! सत्य तो हम हैं ही, इसलिए मिलने की कोई बात नहीं। आठ जगह से टेढ़ा, चलो कोई हर्जा नहीं; लेकिन सत्य टेढ़ा नहीं होगा। स्वरूप टेढ़ा नहीं होगा। यह शरीर ही इरछा-तिरछा हो जाएगा।
साधना की पहुंच शरीर और मन के पार नहीं है। तो तुम अगर इरछे-तिरछे का अभिशाप देते हो तो शरीर तिरछा हो जाएगा, मन तिरछा हो जाएगा, लेकिन मेरी आत्मा को कोई फर्क न पड़ेगा। यही तो अष्टावक्र ने जनक से कहा कि राजन! आंगन के टेढ़े-मेढ़े होने से आकाश तो टेढ़ा-मेढ़ा नहीं हो जाता। घड़े के टेढ़े-मेढ़े होने से घड़े के भीतर भरा हुआ आकाश तो टेढ़ा-मेढ़ा नहीं हो जाता। मेरी तरफ देखो सीधे; न शरीर को देखो न मन को।
__ अष्टावक्र की पूरी देशना यही है कि न शास्त्र से मिलता न साधना से मिलता। इसलिए तो मैंने बार-बार तुम्हें याद दिलाया कि कृष्णमूर्ति की जो देशना है वही अष्टावक्र की है। कृष्णमूर्ति की भी देशना यही है कि न शास्त्र से मिलता न साधना से मिलता। तम घबडा कर पूछते हो तो फिर कैसे मिलेगा? देशना यही है कि कैसे की बात ही पूछना गलत है-मिला ही हुआ है। जो मिला ही हुआ है, पूछना कैसे मिलेगा असंगत प्रश्न पूछना है।
सत्य के लिए कोई शर्त नहीं है; सत्य बेशर्त मिला है। पापी को मिला है, पुण्यात्मा को मिला है, काले को मिला है, गोरे को मिला है; सुंदर को, असुंदर को पुरुष को, स्त्री को। जिन्होंने चेष्टा की, उन्हें मिला है, जिन्होंने चेष्टा नहीं की, उन्हें भी मिला है। किन्हीं को प्रयास से मिल गया है, किन्हीं को प्रसाद से मिल गया है। न तो प्रयास जरूरी है, न प्रसाद की मांग जरूरी है, क्योंकि सत्य मिला ही हुआ है।
खिलता है रात में बेला प्रभात में शतदल, नहीं है अपेक्षित स्फुटन के लिए उजाला, अंधेरा। जागे जिस क्षण चेतना