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की क्या गति होगी-तुम्हें मतलब नहीं। तुम धार्मिक कार्य कर रहे हो ये किस तरह के धार्मिक लोग हैं? ये किसी से पूछने भी नहीं जाते। इन पर कोई रोक भी नहीं लगा सकता, क्योंकि यह धार्मिक काम कर रहे हैं। अगर कोई आदमी माइक लगा कर रात भर अनर्गल बके, तो पुलिस पकड़ ले जाए; लेकिन वह कीर्तन कर रहा है या सत्यनारायण की कथा कर रहा है, तो कोई पुलिस भी पकड़ कर नहीं ले जा सकती। धार्मिक होने की तो स्वतंत्रता है और धार्मिक कृत्य की स्वतंत्रता है। मगर यह आदमी वही का वही है। यह चिल्ल-पों में इसका भरोसा है।
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं कि आप कहते हैं : बस, शांत बैठ कर ध्यान कर लें। मगर कुछ तो सहारा चाहिए, कुछ आलंबन दे दें, राम-राम बता दें, कोई भी मंत्र दे दें, कान फूंक दें, कुछ तो दे दें-तो हम कुछ करें! अब उनको अगर राम-राम दे दो, तो वे राम-राम करने को तैयार हैं मगर बकवास जारी रही! पहले कुछ और बक रहे थे भीतर, हजार चीजें बक रहे थे; अब सब बकवास उन्होंने एक तरफ लगा दी, अब राम-राम बकने लगे। मगर चुप होने को राजी नहीं, सिर्फ देखने को राजी नहीं! देखना बड़ा कठिन है, साक्षी होना बड़ा कठिन!
साक्षी ही ध्यान है। बैठ जाओ; मन चले, चलने दो। तुम हो कौन बाधा डालने वाले? तुमसे पूछा किसने? तुमसे पूछ कर तो मन शुरू नहीं हुआ तुमसे पूछ कर बंद भी होने की कोई जरूरत नहीं है। तुम हो कौन? जैसे राह पर कारें चल रही हैं, रिक्यो दौड़ रहे, भोंपू बज रहे, आकाश में हवाई जहाज उड़ रहे, पक्षी गुनगुना रहे, बच्चे रो रहे, कुत्ते भौंक रहे-ऐसे तुम्हारे भीतर मन का भी ट्रैफिक है. चल रहा, चलने दो! तुम बैठे रहो! उदासीन का यही अर्थ है।
'उदासीन' ठीक-ठीक झाझेन जैसा अर्थ रखता है : बस, बैठ गए! जमा ली आसन भीतर, हो गए आसीन भीतर, बैठ गए, देखने लगे! जो चलता है, चलने दो। बुरा विचार आए तो बुरा मत कहो, क्योंकि बुरा कहा कि तुम डावांडोल हो गए। बुरा कहा कि तुम्हारा मन हुआ कि न आता तो अच्छा था। आ गया, तुम विचलित हो गए। अच्छा विचार आ जाए, तो भी पीठ मत थपथपाने लगना कि गजब, बड़ा अच्छा विचार आया। इतना तुमने कहा कि आसीन न रहे तुम, उखड़ गया आसन, तुम डावांडोल हो गए, तुम्हारी थिरता खो गई। कुंडलिनी जगने लगे तो परेशान मत होना कि उठने लगी कुंडलिनी, अब बस सिद्धपुरुष होने में ज्यादा देर नहीं है। प्रकाश दिखाई पड़ने लगे तो विचलित मत हो जाना। ये सब मन के ही खेल हैं। बड़े-बड़े खेल मन खेलता है! बड़े दूर के दृश्य दिखाई देने लगेंगे। एक महिला, कोई अस्सी वर्ष की महिला, मेरे पास आई। वह कहने लगी कि बड़ा गजब अनुभव हो रहा है।
'क्या अनुभव हो रहा है?' कि जब मैं बैठती हूं, तो ऐसे-ऐसे जंगल दिखाई पड़ते हैं जिनको कभी नहीं देखा। 'मगर इनको देख कर भी क्या करोगे? जंगल ही दिखाई पड़ रहे हैं न?'
वह मुझसे बड़ी नाराज हो गई। उसने कहा कि आप कैसे हैं? मैं तो जब भी किसी साधु-संत के पास जाती हूं, तो वे कहते हैं. बहुत अच्छा हो रहा है! बड़ा अनुभव हो रहा है!