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सहज घट जाएगा; जैसे पका फल गिर जाता है।
'मात्र तृष्णा ही बंध है और उसका नाश मोक्ष कहा जाता है। और संसार-मात्र में असंग होने से निरंतर आत्मा की प्राप्ति और तुष्टि होती है।'
तृष्णामात्रात्मको बंधस्तन्नाशो मोक्ष उच्चते।
भवासंसक्तिमात्रेण प्राप्तितुष्टिर्मुहुर्मुहु।। यह सूत्र बड़ा विचारणीय है। 'मात्र तृष्णा बंध है!'
जब तक तुम कुछ भी चाहते हो, तब तक जानना बंधे रहोगे। ईश्वर को भी चाहा तो बंधे रहोगे। कल ही 'गुणा' ने एक प्रश्न लिख कर मुझे भेजा है कि मैं तो आपको कभी नहीं छोड़ सकती और आप कोशिश भी मत करना मुझे छुड़ा देने की। मेरे लिए तो आप सब कुछ हो, मुझे कोई ईश्वर नहीं चाहिए, कोई मोक्ष नहीं चाहिए।
तुम्हें न चाहिए हो और तुम अपनी चाहत में कुछ गलत की माया भी करो तो भी मैं गलत का सहयोगी नहीं हो सकता हूं। कितनी ही कठोरता मालूम पड़े मैं पूरी चेष्टा करूंगा कि तुम मुझसे मुक्त हो जाओ। अन्यथा, मैं तुम्हारा शत्रु हो गया। यह तो फिर चाहत ने नया रूप लिया। यह तो फिर तृष्णा बनी। पति से छूटे, पत्नी से छूटे, तो गुरु से बंध गए; मगर यह तो फिर नया जंजाल हुआ, फिर नई जंजीर बनी।
गुरु तो वही, जो तुम्हें आत्यंतिक जंजीर से मुक्त करवा दे जो तुम्हें स्वयं से भी मुक्त करवा दे। कठिन लगता है, क्योंकि एक प्रेम जगता है। कठोर लगती है बात, लेकिन तुम्हारी मान कर मैं चलूं तब तो तुम कभी भी कहीं न पहुंच पाओगे। फिर तो मैं तुम्हारा अन्यायी हुआ। तुम्हें कठोर भी लगे तो भी मैं वही किए चला जाऊंगा जो मुझे करना है। अगर मैं तुमसे कहूं भी कि घबड़ाओ मत कभी नहीं छुडाऊंगा, तो भी तुम मेरा भरोसा मत करना। वह भी सिर्फ इसलिए कह रहा हूं कि कहीं छुड़ाने के पहले ही भाग मत खड़े होना। तो रोके रहूंगा समझाता रहूंगा कि नहीं कोई हर्जा नहीं, कहा छुड़ाना है? किसको छुड़ाना है? सदा-सदा तुम्हारे साथ रहूंगा मगर नीचे से जड़ें काटता रहूंगा। एक दिन अचानक तुम पाओगे कि छुटकारा हो गया। मुझसे भी छुटकारा तो चाहिए ही