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बदलता।
तुम छोटे बच्चे थे, फिर तुम जवान हो गए, फिर तुम बूढ़े हो गए, कभी स्वस्थ थे, अब जीर्ण-जर्जर हो गए, खंडहर हो गए लेकिन एक तम्हारे भीतर अखंड, अबाध वैसा का वैसा बना है वह द्रष्टा, साक्षी। एक दिन उसने देखा बच्चे जैसी देह है, एक दिन उसने देखा जवान हो गए; एक दिन उसने देखा, के होने लगे, एक दिन उसने देखा, जीर्ण-जर्जर हो गए।
अगर तुम खयाल कर पाओ कि तुम्हारे भीतर यह साक्षी का जो अनस्थूत धागा है, इस पर हजारों घटनाएं घटी हैं, मगर यह वैसा का वैसा बना रहा है। सब इसके सामने आया और गया है। सब खेल इसके सामने चला है। यह सबसे पार, दूर अछूता, निष्कलुष मौजूद रहा है। यह मौजूदगी ही एकमात्र सत्य है। 'जहां-जहां तृष्णा हो, वहां-वहां ही संसार जान। प्रौढ़ वैराग्य को आश्रय करके वीततृष्णा हो।
'यत्र यत्र भवेत्तृष्णा संसार विद्धि तत्र वै।
प्रौढ़वैराग्यमाश्रित्य वीततृष्ण सुखी भव ।। प्रौढ़ वैराग्य! कच्चा वैराग्य खतरनाक है। पका वैराग्य! क्या फर्क है कच्चे और पके वैराग्य में न: एक तो वैराग्य है जो तुम किसी की बातें सुन कर ले लो। किसी साधु -सत्संग में वैराग्य की चर्चा चलती हो, वैराग्य के अनूठे अनुभवों की बात होती हो तुम्हारा लोभ जग जाए। वैराग्य के आनंद की प्रशस्ति गायी जा रही हो, कोई समाधि के सुख का वर्णन कर रहा हो और तुम्हारे भीतर वासना जग जाए कि ऐसा आनंद हमें भी मिले, ऐसा सुख हम भी पाएं, ऐसी परम रसपूर्ण अवस्था हमारी भी हो! और इस कारण तुम वैराग्य ले लो, तो कच्चा वैराग्य। यह टिकेगा नहीं, यह तुम्हें बड़े खतरे में डालेगा। तुम अभी पके न थे, कच्चे तोड़ लिए गए। कच्चा फल टूट जाए तो वृक्ष को भी पीड़ा होती है, फल को भी पीड़ा होती है।
और कच्चा फल कच्चा है, इसलिए कुछ अनुभव घटेगा नहीं। जो पके फल को घटा है, वह कच्चे को घट नहीं सकता, क्योंकि वह पकने में ही घटता है। जब पका फल वृक्ष से गिरता है तो कभी किसी को पता भी नहीं चलता कब गिर गया, चुपचाप! न वृक्ष पर घाव छूटता, न पके फल को कोई पीड़ा होती-चुपचाप सरक जाता है। हवा का झोंका भी न आया हो और चुपचाप सरक जाता है।
पका वैराग्य, प्रौढ़ वैराग्य-यह शब्द बहुत बहुमूल्य है-प्रौढ़ वैराग्य का अर्थ है. जीवन की असारता को अनुभव करके जो वैराग्य जन्मे। वैराग्य का गीत सुन कर वैराग्य की प्रशस्ति सुन कर, जो लोभ के कारण वैराग्य आ जाए, तो वह कच्चा संन्यास है -उससे बचना, उसका कोई भी मूल्य नहीं, वह बड़े खतरे में डाल देगा। वह तुम्हें संसार का अनुभव भी न करने देगा और समाधि तक भी न जाने देगा: तुम बीच में अटक जाओगे त्रिशंकु की भांति। प्रौढ़ वैराग्य-संसार का ठीक-ठीक अनुभव करके, अपने ही अनुभव से जान कर।
बुद्ध तो कहते हैं : संसार दुख है। और अष्टावक्र कहते हैं कि काम शत्रु है। और महावीर कहते