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मोक्ष में हैं ही, परमात्मा हमें चारों तरफ से घेरे हुए है उसी में हमारा जन्म है, उसी में जीवन है, उसी में हमारा विसर्जन है। लेकिन इतना निकट है परमात्मा, इसलिए दिखाई नहीं पड़ता । दूर तो हम देख लेते। आंखें हमारी दूर को देखने में समर्थ हैं। जो निकट है, वही चूक जाता है। जो बहुत पास है, वह भूल जाता है। और परमात्मा से ज्यादा निकट कोई भी नहीं। मछली के लिए तो उपाय भी है कि कोई उसे उठाकर रेत के किनारे पर डाल दे तो तड़प ले और पता चल जाए उसे कि सागर का छूट जाना कैसा होता है। हमारे लिए तो वह भी उपाय नहीं है, परमात्मा के बाहर हम जा ही नहीं सकते।
अष्टावक्र की उदघोषणा यही है कि तुम धर्म की चिंता में मत पड़ना । परमात्मा को पाने के लिए कुछ भी करना जरूरी नहीं है; वह मिला ही हुआ है। मोक्ष कहीं भविष्य में नहीं है-मोक्ष अभी और यहीं है। मोक्ष, तुम्हारी चाह से शून्य अवस्था का नाम है।
वैरिण कामम्........
काम है शत्रु क्योंकि वह तृप्त न होने देगा। शत्रु तो वही न जो तृप्त न होने दे ! यह शत्रु का अर्थ समझो। मित्र तो वही न जो तृप्ति दे, विश्रांति दे, जिसके पास बैठकर आराम मिले ! जिसके पास बैठकर सुख हो - मित्र वही । जिसके साथ रहकर दुख ही दुख हो, जिसकी दोस्ती में सिवाय कीटों के कभी कुछ और न मिले; जो फूलों का भरोसा दे, लेकिन परिणाम में हमेशा काटे हाथ आएं - शत्रु । वैरिण कामम् अनर्थसंकुलम् अर्थम् !
और अष्टावक्र कहते हैं : जिसको तुम अर्थ कहते हो, वह अनर्थ है। जिसको तुम धन कहते हो, अर्थ, अर्थशास्त्र, इक्यामिक्स, वह अनर्थ का शास्त्र है। दुनिया में जितना अनर्थ हो रहा है, वह धन के कारण होता है। इसलिए कुछ दुनिया के विचारक तो इस सीमा तक पहुंच गए कि उन्होंने कहा. जब तक दुनिया में धन है, तब तक शांति नहीं हो सकती।
तुमने निन्यानबे के चक्कर की कहानी पढ़ी है न, वह अनर्थ की घटना है। कहानी सीधी - साफ है, सरल है, मनुष्य को ठीक से प्रगट करती है।
एक सम्राट का एक नौकर था, नाई था उसका। वह उसकी मालिश करता, हजामत बनाता । सम्राट बड़ा हैरान होता था कि वह हमेशा प्रसन्न, बड़ा आनंदित, बड़ा मस्त ! उसको एक रुपया रोज मिलता था। बस, एक रुपया रोज में वह खूब खाता-पीता, मित्रों को भी खिलाता -पिलाता। सस्ते जमाने की बात होगी। रात जब सोता तो उसके पास एक पैसा न होता, वह निश्चित सोता। सुबह एक रुपया फिर उसे मिल जाता मालिश करके । वह बड़ा खुश था! इतना खुश था कि सम्राट को उससे ईर्ष्या होने लगी। सम्राट भी इतना खुश नहीं था। खुशी कहां उदासी और चिंताओं के बोझ और पहाड़ उसके सिर पर थे। उसने पूछा नाई से कि तेरी प्रसन्नता का राज क्या है? उसने कहा, मैं तो कुछ जानता नहीं, मैं कोई बड़ा बुद्धिमान नहीं। लेकिन, जैसे आप मुझे प्रसन्न देख कर चकित होते हैं, मैं आपको देख कर चकित होता हूं कि आपके दुखी होने का कारण क्या है पुन मेरे पास तो कुछ भी नहीं है और मैं सुखी हूं; आपके पास सब है, और आप सुखी नहीं! आप मुझे ज्यादा हैरानी में डाल देते हैं। मैं तो