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अपवाद-स्वरूप है। धार्मिक आदमी अगर अमीर है तो बिलकुल स्वाभाविक है, ऐसा होना ही चाहिए था। अमीर आदमी को धार्मिक होना ही चाहिए; क्योंकि अब इस जगत में कुछ है, इसकी आशा समाप्त हो गई। उसके पास सब है। कोई एंडू कारनेगी, कोई रॉकफेलर, सब है उनके पास। जो खरीदना हो, सब खरीदा जा सकता है। जितनी मात्रा में खरीदना हो, खरीदा जा सकता है। जो खरीदा जा सकता है, खरीदने की क्षमता उससे ज्यादा है उनके पास। अब क्या करें?
तो अगर धार्मिक आदमी अमीर हो, तो साधारण बात है, होना ही चाहिए; गरीब हो, तो असाधारण घटना है। और अगर अमीर धार्मिक आदमी न हो, तो बड़ी असाधारण घटना है, ऐसा होना नहीं चाहिए। इसके दो ही अर्थ हो सकते हैं. या तो वह बुद्ध है, मूढ़ है, और या फिर अभी ठीक से धनी नहीं हुआ। ठीक से धनी हो और बुद्धि पास हो तो धार्मिक होने के सिवाय कोई उपाय नहीं। गरीब आदमी को धार्मिक होना हो तो बड़ी प्रखर प्रतिभा चाहिए। अमीर आदमी को अगर धार्मिक होने से बचना हो तो बड़ी प्रखर मूढ़ता चाहिए।
भारत जब धनी था तो धार्मिक था। स्वर्ण -युग था भारत का बुद्ध-महावीर के समय में। शिखर पर था भारत दुनिया में, सोने की चिड़िया था! सारी दुनिया भारत की तरफ देखती थी, सारा धन जैसे यहां इकट्ठा था। उन घड़ियों में हमने जो शिखर छए धर्म के, फिर नहीं छू सके हम, फिर सपना हो गया सब।
गरीब आदमी धार्मिक दिखाई भला पड़े, हो नहीं सकता। क्योंकि गरीब आदमी का अभी भी भरोसा अर्थ में है। अभी तो कामना ही पकड़े हुए है। अभी तो जीवन की छोटी-मोटी जरूरतें पूरी नहीं हुईं धर्म तो जीवन की बड़ी आखिरी जरूरत है। कहते हैं, ' भूखे भजन न होय गोपाला!' वह जो भूखा आदमी है, कैसे भजन करे? उसके भजन में भी भूख की छाया होगी। उसके भजन में भी भूख होगी। वह भजन भी करेगा तो रोटी ही मांगेगा। उसके भजन में परमात्मा की मांग नहीं हो सकती। जब जीवन की छोटी जरूरतें पूरी हो जाती हैं, शरीर, मन की दौड़ के लिए सब उपाय हो जाते हैं, तब अचानक पता चलता है कि यहां तो पाने योग्य कुछ भी नहीं है। तो कहीं और है पाने योग्य, उसकी खोज शुरू होती है।
धर्म की यात्रा तभी शुरू होती है, जब अर्थ और काम की यात्रा व्यर्थ हो जाती है।
तो दो यात्राएं हैं इस जगत में, एक है-अर्थ, काम। अर्थ है साधन; काम है साध्य। फिर दूसरी यात्रा है-धर्म, मोक्ष। धर्म है साधन; मोक्ष है साध्य। तो साधारणत:, ऐसा समझा गया है कि जिस आदमी को मोक्ष पाना हो, उसे धर्म कमाना चाहिए। जैसे, जिस व्यक्ति को कामना तृप्त करनी हो, उसे धन कमाना चाहिए। क्योंकि धन के बिना कैसे तुम कामना तप्त करोगे? जिसको काम का जगत पकड़े हो, उसे अर्थ कमाना चाहिए। और जिस व्यक्ति को यह बात व्यर्थ हो गई, अब उसे मुक्त होना है, परम मुक्ति का स्वाद लेना है-उसे धर्म कमाना चाहिए। यह साधारण धर्म की व्यवस्था है।
अष्टावक्र बड़ी क्रांतिकारी बात कह रहे हैं। वे कह रहे हैं : जिस व्यक्ति को वस्तुत: मोक्ष पाना हो, उसे धर्म से भी मुक्त हो जाना चाहिए। क्यों? क्योंकि मोक्ष को कामना नहीं बनाया जा सकता।