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कोई महावीर, कोई बुद्ध जब त्याग करता है, तो उसकी घोषणा सदियों तक होती है। जैनों के शास्त्रों में, महावीर ने कितना त्याग किया, उसके बड़े बढ़ा-चढ़ा कर वर्णन हैं। कितने हाथी, कितने घोडे, कितने रथ, कितना स्वर्ण, कितनी अशर्फिया-वह बढ़ा-चढ़ाया हुआ वर्णन है। उतना हो नहीं सकता था। क्योंकि महावीर एक बहुत छोटे-मोटे राजा के लड़के थे। उस राजा की हैसियत राजा जैसी नहीं थी, एक बड़े मालगुजार जैसी थी। आज की भाषा में अगर कहें, तो एक तहसील से बड़ा वह राज्य न था; तहसीलदार की हैसियत थी। इतना धन महावीर के घर में हो नहीं सकता, जितना शास्त्रों में लिखा है। लेकिन क्यों शास्त्रों में बढ़ा-चढ़ा कर लिखा होगा? क्योंकि शास्त्रकार महावीर को महात्यागी बताना चाहते थे। और त्याग को मापने का एक ही उपाय है. धन।
अब यह बड़ी हैरानी की बात है. यहां भोग भी धन से नापा जाता, यहां त्याग भी धन से नापा जाता! यहां अगर तुम किसी को प्रतिष्ठा देते हो तो भी धन के कारण। और अगर तुम कभी त्यागी को भी प्रतिष्ठा देते हो तो वह भी धन के कारण। धन की प्रतिष्ठा दिखाई पड़ती है, अंतिम है। उसके अतिरिक्त हमारे पास कोई मापदंड नहीं है। भिखमंगा छोड़े तो क्या छोड़ा?
इसलिए शायद जैनों के चौबीस तीर्थंकर ही राजपुत्र हैं। ऐसा तो नहीं है कि इन राजपुत्रों के काल में किसी गरीब ने त्याग न किया होगा। चौबीस ही राजपुत्र हैं. तीर्थंकर। बुद्ध भी राजा हैं, कृष्ण, राम, हिंदुओं के अवतार भी राजा हैं। थोड़ा सोचने जैसा है। धन की प्रतिष्ठा इतनी है कि अगर हम त्याग को भी मापेंगे तो वही तो एक मापदंड है। ये राजा रहे होंगे, तब सम्मानित थे। फिर उन्होंने जब राज त्याग दिया, तब और भी सम्मानित हो गए।
लेकिन क्या यह त्याग का सम्मान हुआ? यह तो धन का ही सम्मान हुआ। भिखमंगा छोड़ कर खड़ा हो जाए तो तुम हसोगे। तुम कहोगे था क्या तुम्हारे पास, जो तुमने छोड़ दिया? लंगोटी भी नहीं थी, नंगे तुम थे ही, अब दिगंबर होने की घोषणा क्या करते हो?
तो त्याग के लिए भी धन होना चाहिए। और पुण्य के लिए भी पाप करना होगा। इसलिए जो लोग जीवन की व्यवस्था को समझते हैं, वे कहेंगे. धर्म भी छोड़ देना होगा; पुण्य भी छोड़ देना होगा। ये दोनों बातें एक साथ छोड़ देनी होगी।
इस सूत्र को समझने की कोशिश करें :
विहाय वैरिण काममर्थं चानर्थसंकुलम्।
धर्ममप्येतयोहंतुं सर्वत्रानादरं कुरु।। शत्रु है काम। क्यों समस्त शास्त्र सारी दुनिया के, काम को शत्रु कहते हैं? क्या कारण होगा कहने का? एक मत से शत्रु कहते हैं। हिंदू हों, जैन हों, बौद्ध हों, ईसाई हों-स्व मत से कहते हैं कि काम शत्रु है। क्या कारण होगा काम को शत्रु कहने का? उसे हम समझने की कोशिश करें।
काम का बल ही, काम-ऊर्जा की शक्ति इतनी विराट है, कि उसके पाश के बाहर होना सर्वाधिक कठिन है, करीब-करीब असंभव जैसा है। मनोवैज्ञानिक तो मानते हैं, उसके पार हुआ ही नहीं जा सकता।