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गई, उसी दिन निर्वेद उपलब्ध हुआ।
इन सारी कक्षाओं से गुजर जाना जरूरी है। क्योंकि जिससे तुम नहीं गुजरोगे उसका खतरा शेष रहेगा; कभी अगर मौका आया तो शायद फंस जाओ।
इसलिए मैं निरंतर कहता हूं : जिससे भी मुक्त होना हो, उसे ठीक से जान लो। जानने के अतिरिक्त न कोई मुक्ति है न कोई क्रांति है।
दूसरा प्रश्न :
शिष्य के अंदर अपने सदगुरु के प्रति उसका प्रेम और शिष्य का अहंकार क्या दोनों एक साथ टिक सकते हैं?
दिन टिकते हैं, ज्यादा दिन टिक नहीं सकते। लेकिन प्रथमत: तो टिकेंगे। प्रथमत: तो
जब शिष्य गुरु के पास आता है, तो एकदम से थोड़े ही अहंकार गिरा देगा, एकदम से थोड़े ही अहंकार छोड़ देगा। शुरू में तो शायद अहंकार के कारण ही गुरु के पास आता है। धन खोजा, कुछ नहीं पाया, अहंकार को वहां तृप्ति न मिली; पद खोजा, वहां कुछ न पाया; अहंकार को वहां भी तृप्ति न मिली-अब अहंकार कहता है, ज्ञान खोजो।
देखा तुमने, अष्टावक्र ने तीन वासनाएं गिनाईं-उनमें एक और आखिरी वासना ज्ञान की! अहंकार ही तुम्हें गुरु के पास ले आया है। इसलिए जो गुरु के पास ले आया है वह एकदम साथ न छोड़ेगा; वह कहेगा कि प्रथमत: तो हम ही तुम्हारे गुरु हैं हम ही तुम्हें यहां लाए। पहले तुम हमें नमस्कार करो! ऐसे कहां हमें छोड़ कर चले? इतने जल्दी न जाने देंगे।
तो अहंकार रहेगा; लेकिन अगर गुरु का प्रेम.. गुरु के प्रति प्रेम उठने लगा, तो ज्यादा दिनर रह सकेगा। क्योंकि ये विपरीत घटनाएं हैं, ये दोनों साथ-साथ नहीं हो सकतीं। दीया जलने लगा, ज्योति बढ़ने लगी, प्रगाढ़ होने लगी-पहले टिमटिमाती-टिमटिमाती होगी तो थोड़ा-बहुत अंधेरा बना रहेगा फिर ज्योति जैसे-जैसे प्रगाढ़ होगी, वैसे-वैसे अंधेरा कटेगा। फिर एक घड़ी आएगी ज्योति के थिर हो जाने की, और अंधकार नहीं रह जाएगा।
गुरु के पास लाता तो अहंकार ही है, इसलिए एकदम से छोड़ा नहीं जा सकता। इस तरह के अहंकार को ही तो लोग सात्विक अहंकार कहते हैं, धार्मिक अहंकार कहते हैं, पवित्र अहंकार! तो अहंकार भी।
जैसे तुमने कहावत सुनी होगी कि कोई बिल्ली हज को जाती थी, तो उसने सब को निमंत्रण दिया-चूहे इत्यादि को कि अब तो तुम मुझसे आ कर मिल लो। अब मैं हज को जा रही हूं पता नहीं