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उसने कहा : बचे! सपने के अनुभव ने जगा दिया। अब कोई बारात नहीं, अब यह घोड़े-वोड़े पर चढ़ना अपने से होने वाला नहीं। इतना काफी है अनुभव। सपने की झूठी स्त्री ने ऐसा धक्का दिया कि भले-चंगे सोए, मैं जिंदगी भर से सोता आ रहा हूं कुओं पर कभी नहीं गिरा। इस स्त्री ने कहा, जरा सरको..। असली स्त्रियां क्या न करती होंगी?
अगर बोध हो तो सपना भी जगा देता है। अगर बोध न हो तो जीवन भी ऐसा ही बीत जाता है तुम उसका हिसाब भी नहीं लगा पाते।
लोकचेष्टा अवलोकनात्.......। लोक की चेष्टाओं का अवलोकन!
कस्य धन्यस्य अपि........। और कोई धन्यभागी ही जीवन की चेष्टाओं का अवलोकन करता है। अधिक लोग तो शास्त्रों में खोजते उसे, जो चारों तरफ बरस रहा है; जो चारों तरफ मौजूद है, उसे शब्दों में खोजते; जो हर घड़ी मौजूद है, जो कहीं से भी पकड़ा जा सकता है सूत्र, उसके लिए व्यर्थ के तर्क और सिद्धांत और विवाद में पड़ते हैं।
कस्य धन्यस्य अपि.......| इसलिए अष्टावक्र कहते हैं : कोई धन्यभागी कभी जीवन का ठीक अवलोकन करके..|
जीवितेच्छा बुभुक्षा च बुभुत्सोपशमं गताः।। तीन चीजों से मुक्त हो जाता है-जीने की इच्छा से, भोगने की इच्छा से और जानने की इच्छा से। तुम चकित होओगे : जानने की इच्छा भी-कि मैं और ज्यादा जान लूं और ज्यादा जान लूं पंडित हो जाऊं, महापंडित हो जाऊं, सब कुछ जान लूँ जो दुनिया में है-वह भी बंधन का कारण है। इच्छा-मात्र बंधन का कारण है। और तीन ही इच्छाएं हैं। या तो आदमी जीवन की इच्छा से भरा रहता है तो धन कमाता है, पद की प्रतिष्ठा खोजता है। या भोगने की वासना से भरता है, तो शराब पीता है, वेश्यागमन करता है, भागता-फिरता भोगने। और तीसरे तरह के लोग हैं जो ज्ञान की आकांक्षा करते हैं। वे शास्त्राध्ययन, तर्क को निखारते हैं, सिद्धातों पर धार धरते हैं, वाद-विवाद में पड़े रहते हैं। ये तीन तरह के साधारण लोग हैं।
चौथा व्यक्ति वह है-धन्यभागी, जिसकी कोई आकांक्षा नहीं; जो न भोगना चाहता, न जानना चाहता, न जीना चाहता; जो कहता है : देख लिया सब, इसमें कुछ भी नहीं है।
'यह सब अनित्य है, तीनों तापों से दूषित है, सारहीन है, निंदित है, त्याज्य है-ऐसा निश्चय कर वह शांति को प्राप्त होता है।' ये तीनों दौड़े सिर्फ तीन ताप ले आती हैं।
अनित्य सर्वमेवेद तापत्रितय दूषितम्। असार निंदित हेयमिति निश्चित्य शाम्यति। इदम् सर्वम् अनित्यम्......|