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व्यक्तित्व की गरिमा और प्रसाद बड़ा आभायुक्त व्यक्ति था! उसकी बात पर सहज भरोसा हो जाता। कोई यह भी नहीं सोचता कि यह आदमी गलत कहेगा। उससे पूछते, बाबा कहा है बस्ती का रास्ता, तो वह कह देता कि बिलकल सीधे चले जाओ: इस रास्ते पर मत जाना, नहीं तो भटक जाओगे। जब वे चार मील चल कर पहुंचते तो मरघट! बड़े क्रोध में लौट कर आते। वे कहते कि तुम होश में तो हो? मरघट भेज दिया!
उसने कहा. तुमने बस्ती पूछी थी न? तो मैंने मरघट में जिनको बसते देखा, उनको कभी उजड्ते नहीं देखता-इसलिए उसको मैं बस्ती कहता हूं। और बस्ती तुम जिसको कहते हो, उसको मैं मरघट कहता हूं क्योंकि वहां सब मरने वाले लोग हैं। आज मरा कोई कल मरा कोई, परसों मरा कोई-वह मरघट है। वहां क्यू लगा है, जिसका नंबर आ गया, वह गया। जिसको तुम बस्ती कहते हो, उसको मैंने बसते कभी देखा नहीं; उजडूते देखा। उसको बस्ती कहो कैसे भूः बस्ती तो वह, जो बसी रहे। मरघट है बस्ती। तुमने बात गलत पूछी मेरी कोई गली नहीं है। तुमने पूछा बस्ती कहां है, मैंने तुम्हें बस्ती बता दी। तुम पूछते मरघट मैं तुम्हें गांव भेज देता। अब तुम मरघट जाना चाहते हो, तो तुम इस रास्ते से चले जाओ। लेकिन मैं तुमसे कहे देता हूं मरघट पर कभी तुम बस न पाओगे। जाना तो पड़ेगा-जिसको तुम मरघट कहते हो-वहीं। क्योंकि वहीं अंतिम बसाव है, वहीं आदमी अंततः पहुंच जाता है।
जिसको बस्ती कहो, वहां कई दफे मरघट बन चुका; जिसको मरघट कहो, वहां कई दफे बस्ती बस चुकी। यहां क्या जंगल है, क्या बाजार है! यहां दोनों ही माया हैं, दोनों ही सपने हैं। चुने कि फंसे। महागीता कहती है : चुनना मत। जो हो होने देना। तुम सिर्फ देखते रहना।
यह सबसे कठिन बात है और सबसे सरल भी। क्योंकि करने को कुछ नहीं, इसलिए बिलकुल सरल; और चूंकि करने को कुछ भी नहीं है, इसलिए तुम्हें बहुत कठिन है। कुछ करने को हो तो कर लो। इसमें कुछ करने को ही नहीं है, सिर्फ देखते रहने का है।
'कृपया यह भी समझाएं कि अनिर्णय की दशा में और अचुनाव की दशा में क्या फर्क है!'
बहुत फर्क है। दोनों एक-दूसरे के विपरीत हैं। अनिर्णय का अर्थ है : तुम्हारे मन में दो निर्णय एक साथ हैं। जब भी कोई आदमी कहता है कि मैं अनिर्णीत हूं तुम भूल में मत पड़ जाना। वह यह कह रहा है कि दो निर्णय हैं और तय नहीं कर पा रहा हूं कि कौन-सा करूं-जंगल जाऊं कि दुकान पर रहूं? एक मन कहता है, दुकान पर रहो; एक कहता है, जंगल चले जाओ। एक मन कहता है, शादी कर लो; एक कहता है, कुंआरे बने रहो। एक मन कहता है, ऐसा करो; एक मन कहता है, वैसा करो।
निर्णय हैं या कई निर्णय हैं। और कई निर्णयों में चुन नहीं पा रहे हो, क्योंकि सभी करीब-करीब बराबर वजन के मालूम होते हैं इसलिए अनिर्णय।
अनिर्णय बड़ी भ्रांत, मूर्छित दशा है; और अचुनाव बड़ी जाग्रत दशा है। अचुनाव का मतलब है कि न यह चुनते हैं न यह चुनते हैं, चुनते ही नहीं। अनिर्णय में तो चुनने की आकांक्षा बनी है, मगर तय नहीं हो पा रहा : क्या करें, किसको चुनें?