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तो मैं जुड़ा ही रहता है। इसलिए तो लोग बड़े लड़ते हैं। कहते हैं, मेरा विचार। इसकी भी फिक्र नहीं करते कि सत्य क्या है? मेरा विचार सत्य होना ही चाहिए, क्योंकि मेरा है। दुनिया में जो विवाद चलते हैं, वह कोई सत्य के अनुसंधान के लिए थोड़े ही हैं। सत्य के अनुसंधान के लिए विवाद की जरूरत ही नहीं है। विवाद चलते हैं कि जो मैं कहता हूं वही सत्य जो तुम कहते हो वही गलत। तुम कहते हो, इसलिए वह गलत। और मैं कहता हूं इसलिए यह सही। और कोई आधार नहीं है। मैंने कहा है तो गलत हो कैसे सकता है!
तो विचार में तो मैं -तू है। मति में मैं -तू नहीं है। या ऐसा होगा कहना ज्यादा ठीक कि विचार हमारे-तुम्हारे होते, विचार मनुष्यों के होते, मति परमात्मा की। मति वहां है जहां हम खो गए होते हैं।
इति मति मत्वा हेलया मा गृहाण मा विमुज्च। -ऐसी मति में हों हम, कि न तो इच्छा करके ग्रहण करें, न इच्छा करके त्याग करें।
इसको भी समझ लेना। जरा भी इच्छा न हो। जो हो, उसे होने दें। अगर किसी क्षण दुख हो, तो उसे होने दें, इच्छा करके हम दुख को न हटाए। और किसी क्षण सुख हो, तो उसे होने दें; इच्छा करके हम सुख को न हटाए। हम इच्छा करके हटाने का काम ही बंद कर दें। हम तो यही कह दें जो हो तेरी मर्जी। जैसी तेरी मर्जी वैसे रहेंगे। जो अनंत की मर्जी, वही मेरी मर्जी। मैं अपने को अलगथलग न रखूगा। मेरा अपना कोई निजी लक्ष्य नहीं अब। जो सर्व का लक्ष्य है, वही मेरा लक्ष्य है।
ऐसी घड़ी में, ऐसी मति में, ऐसी प्रज्ञा में, ऐसे बोधोदय में, कहां दुख? कहां सुख? कहां बंधन? कहां मुक्ति ? सब द्वंद्व खो जाते हैं। सब द्वैत सो जाते हैं। एक ही बचता है अहर्निश। एक ही गूंजता है, एक ही गाता, एक ही जीता, एक ही नाचता है। ऐसी घड़ी में तुम सर्व के अंग हो जाते, सर्व के साथ प्रफुल्लित, सर्व के साथ खिले हुए। तुम्हारा सब संघर्ष समाप्त हो जाता है। तुम सर्व के साथ लयबद्ध हो जाते; छंदोबद्ध हो जाते।
सर्व के साथ जो छंदबद्ध हो गया है, उसी को मैं संन्यासी कहता हूं। जो हो अच्छा हो, बुरा हो-अब कोई चिंता न रही। जैसा हो, हो; अब मेरी कोई अपेक्षा न रही। अब जो होगा वह मुझे स्वीकार है। नर्क तो नर्क और स्वर्ग तो स्वर्ग। ऐसी परम स्वीकृति का नाम संन्यास है।
ये संन्यास के महत सूत्र हैं। इन्हें तुम समझना, सोच-विचार कर नहीं, ध्यान कर-कर के, ताकि इनसे मति का जन्म हो जाए।
यदा नाहं तदा मोक्षो यदाहं बंधन तदा।
मत्वेति हेलया किंचित् मा गृहाण विमुज्च मा।। और इस जीवन के लिए, इस जीवन की परम क्रांति के लिए तुम्ही प्रयोग स्थल हो, तुम ही परीक्षा हो। तुम्हीं को अपनी परीक्षा लेनी है। तुम्हीं को जनक बनना है और तुम्हीं को अष्टावक्र भी। यह संवाद तुम्हारे भीतर ही घटित होना है।
मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन अपनी लान में आरामकुर्सी पर अधलेटा अखबार पढ़ रहा