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किस पर करें; सोचते रहे कि सबसे कमजोर क्षत्रिय कौन है, पहले उसी को देखें।
अब ये भी कोई ढंग होते हैं? उतनी देर में क्षत्रिय जाग गए, वे तलवारें निकाल लाए। जुलाहों ने तलवारें देखीं तो भागे, बेतहाशा भागे। जब जलाहे भाग रहे थे, तो उनमें से उनका एक साथी कहने लगा कि भाइयों! भागे तो जाते ही हो, भला मारो-मारो तो कहते चलो। तो जुलाहे भागते जाते और चिल्लाते जाते : 'मारो-मारो!' ।
किसको धोखा देते हो? लेकिन उनको मजा आया 'मारो-मारो चिल्लाने में। मारना करना उनके बस के बाहर था, पिटाई हो रही थी, भागे जा रहे थे, लेकिन जिसने कहा, उसने भी खूब तरकीब निकाली। उसने कहा कि कम से कम मारो -मारो तो चिल्लाओ। मार नहीं सकते, कोई हर्जा नहीं, लेकिन मारो -मारो की आवाज तो हम कर ही सकते हैं। इससे कम से कम भरोसा तो रहेगा कि हमने भी कुछ किया।
तुम अपने त्यागियों को देखते हो? तुम्हारे ही जैसे, ठीक तुम्हारे जैसे ही वांछा से भरे, कामना से भरे, तुम्हारे ही जैसे वासना से भरे। माना कि उनके वासना के विषय दूसरे, तुम्हारे विषय दूसरे, पर विषय- भेद से थोड़े कोई भेद पड़ता है! वासना का अर्थ है. कुछ भी चाहा, तो चूके, तो अपने से चूके। चाह-मात्र अपने से वंचित कर जाती है। लेकिन भागते जाते हैं अपनी चाह के पीछे और चिल्लाते भी जाते हैं कि भाइयो! त्यागों, त्यागो! वासना में कुछ सार नहीं है!
तुम जरा सुनो अपने जुलाहों को तुम्हारे महात्मा! वे कहते हैं. 'भाइयों! त्यागो, त्यागो! वासना में कुछ भी रखा नहीं; दुख ही दुख है। ' और तुम उनसे ही पूछो कि महाराज, आप उपवास करते, घर छोड़ दिया, मंदिर में बैठे हैं, बड़ा ध्यान लगाते हैं-किसलिए गुम अगर तुम्हारा महात्मा उत्तर दे दे कि इसलिए, तो चूक गया। कोई भी उत्तर वह दे, कहे कि इसलिए, तो वासना मौजूद है।
तुम्हारा महात्मा अगर हंसे और कहे कि 'किसलिए भी नहीं, सिर्फ जीवन की व्यर्थता दिखाई पड़ गई.! मैंने जीवन छोड़ा नहीं है-जीवन छूट गया है। मैं कुछ चाहने में नहीं लगा हूं मैं कुछ खोजने में भी नहीं लगा हूं-मैंने तो यह जान लिया कि जिसको खोजना है, वह मेरे भीतर है, उसको खोजने की कोई जरूरत नहीं है। मैं कहीं जा भी नहीं रहा हूं अपने घर में बैठा हूं। मेरी सब यात्रा समाप्त हो गई है। मैं मोक्ष भी नहीं खोज रहा हूं, परमात्मा भी नहीं खोज रहा हूं। मेरी प्रार्थना कुछ मांगने के लिए नहीं है। उपवास मेरा आनंद है, कुछ चाह नहीं। ध्यान मेरा आनंद है, कुछ चाह नहीं। ये मेरे साधन नहीं हैं, ये मेरे साध्य हैं।'
अगर तुमसे कोई महात्मा ऐसा कहे, और ऐसा तुम पाओ कि किसी महात्मा के जीवन में ऐसा है भी, क्योंकि कहने से कुछ नहीं होता; हो सकता है 'मारो-मारो' चिल्ला रहा हो, फिर भी तुम्हें उसकी आंखों में ऐसी झलक मिले, उसके सान्निध्य में भी ऐसा लगे कि न उसकी कोई पकड़ है न कोई छोड़ है, न त्याग है न भोग है, जो होता है होता है, वह चुपचाप किनारे पर बैठा देख रहा है-अगर तुम ऐसी विश्राम की चेतना को पा लो, वहां झुकाना अपना सिर। वह झुकने की जगह है। वह मंदिर की चौखट आ गई। वैसा आदमी मंदिर है।