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कोई कमी है? सब तरफ दुख ही दुख हैं।
तुम्हें दुख बनाने की जरूरत नहीं, दुख तो हैं, तुम सिर्फ दुखों से भागो मत, दुखों के प्रति जागो! तुम दुखों को सुख में भुलाने की चेष्टा मत करो। तुम दुखों को ध्यान बना लो और उसी ध्यान से तुम पाओगे, तुम आत्म-स्मरण में सरकने लगे। धीरे- धीरे दुख को देखते-देखते, तुम्हें वह भी दिखाई पड़ने लगेगा जो दुख को देख रहा है। सुख में तो देखने वाला सो जाता है। इसलिए तो सुख में कभी परमात्मा याद नहीं आता। इसलिए तो सुखी आदमी एक तरह के अभिशाप में है और दुखी आदमी को एक तरह का वरदान है। सुखी तो भूल जाता अपने को, परमात्मा की सुध कौन रखे ? परमात्मा तो हमारा आत्यंतिक केंद्र है। हम अपने को ही भूल गए, तो अपने केंद्र की कहां सुध रही? परमात्मा तो हमारे भीतर छिपा है; हम अपने को ही भूल गए तो परमात्मा को ही भूल गए। इसलिए कभी-कभी दुख में परमात्मा की भला याद आए, सुख में जरा भी याद नहीं आती; सुख में तो आदमी बिलकुल भूल जाता है।
सुख आएं तो सौभाग्य मत समझना । सुख आएं तो उनके भी साक्षी बनना और दुख आएं तो दुर्भाग्य मत समझना; दुख आएं तो उनके भी साक्षी बनना। और दोनों के साक्षी बन कर तुम पाओगे कि दोनों के पार हो गए हो।
जो न सुखी होता न दुखी, जहां न सुख है न दुख, वहीं बंधन के पार हो जाता है आदमी। जब तक सुखी होता, दुखी होता, छोड़ता, पकड़ता, तभी तक बंधन है । तदा बंध !
'जब मन न चाह करता है, न सोचता है, न त्यागता है, न ग्रहण करता है, वह जब न सुखी होता, न दुखी होता-तब मुक्ति |
तदा मुक्तिर्यदा चित्तं न वांछति न शोचति।
न मुडचति न गृहणाति न हष्यति न कुप्यति।।
कहां है मुक्ति ? मोक्ष कहां है? लोग सोचते हैं, शायद मोक्ष कहीं किसी पारलौकिक भूगोल का हिस्सा है, कोई ज्यॉँग्राफी है। मोक्ष ज्याँग्राफी नहीं है, भूगोल नहीं है। मोक्ष तो तुम्हारे ही चित्त की आत्यंतिक रूप से शांत हो गई दशा है।
लोग सोचते हैं, संसार बाहर है। संसार भी बाहर नहीं है - तुम्हारी ही विक्षुब्ध चेतना है। मोक्ष भी कहीं दूर ऊपर आकाश में है? नहीं, जरा भी नहीं । मोक्ष भी तुम्हारी फिर से शांत हो गई है। तो ऐसा समझो कि संसार है ज्वर-ग्रस्त चेतना; मोक्ष है ज्वर - मुक्त चेतना । संसार है उद्विग्न लहरें तुम्हारे चैतन्य की, मोक्ष है लहरों का फिर सो जाना, विश्राम में खो जाना । झील जब शांत हो जाए और चांद का प्रतिबिंब बनने लगे पूरा-पूरा तो मोक्ष, और झील जब उद्विग्न हो जाए, और लहरें ही लहरें फैल जाएं और चांद का प्रतिबिंब टूट जाए - तब संसार ।
तदा मुक्तिः यदा न वांछति ।
- न तो चाह हो,
न शोचति........ ।