________________
रहता है। तुमने सुनी है सूरदास की कथा? मुझे ठीक नहीं मालूम पड़ती, सच नहीं मालूम पड़ती। क्योंकि कथा ऐसी बेहूदी है कि सूरदास का सारा मूल्य खराब हो जाता है। सूरदास जैसे कीमती मनुष्य के जीवन में ऐसी घटना घट सकती है, यह मैं मानने को राजी नहीं घटी हो तो सूरदास दो कौड़ी के । न घटी हो, तो ही सूरदास में कुछ मूल्य है।
कथा कहती है कि सूरदास ने एक सुंदर युवती को देखा और वे चल पड़े उसके पीछे। उसके द्वार पर भिक्षा मांगी, फिर रोज-रोज भिक्षा मांगने जाने लगे। फकीर हैं। अपना लिए इकतारा, गीत गुनगुनाते रहते हैं, लेकिन सब गीत अब उस स्त्री की तरफ समर्पित होने लगे। घबड़ाहट पैदा हुई। तो कहते हैं, अपनी आंखें फोड़ डालीं। सूरदास उस दिन हुए। आंखें फोड़ लीं अंधे हो गए। क्योंकि सोचा कि जो आंखें भटका रही हैं, इन आंखों से क्या संग-साथ !
यह कहानी जरूर नासमझों ने गढ़ी होगी। क्योंकि आंखें फोड़ लेने से वासना से कहीं मुक्ति होती है? आंखें फोड़ लेने से तो वासना बाहर दिखाई पड़ती थी, अब भीतर दिखाई पड़ने लगेगी। तुम कभी सोचो, एक सुंदरी जाती हो रास्ते से, घबड़ाहट में आंखें बंद कर लो, साधु-महात्मा हो जाओ तो आंखें बंद करके क्या स्त्री का रूप खो जाता है? और सुंदर हो कर प्रगट होता है। और सुगंधित हो कर प्रगट होता है। वह साधारण-सी स्त्री, जो खुली आंख से देखते तो शायद उससे छुटकारा भी हो जाता। कौन स्त्री, कौन पुरुष इतना सुंदर है कि अगर ठीक से देखो तो छुटकारा न हो जाए अगर गौर से देखते तो मुक्त भी हो जाते। अब आंख बंद करके तो बड़ी मुश्किल हो गई। अब तो स्त्री अप्सरा हो गई, सपना बन गई।
तुमने खयाल किया, तुम्हारे सपनों में जैसी सुंदर स्त्रियां होती हैं, ऐसी सुंदर स्त्रियां जगत में नहीं हैं! इसलिए तो कवि बड़े अतृप्त रहते हैं, क्योंकि वे जैसी कल्पना कर लेते हैं स्त्रियों की, वैसी स्त्रियां कहीं मिलती नहीं । चित्रकार बड़े अतृप्त रहते हैं, मूर्तिकार बड़े अतृप्त रहते हैं। किसी से मन नहीं भरता। अब जो मूर्ति गढ़ता है, उसकी रूप की कल्पना बड़ी प्रगाढ़ है । नाक-नक्या का उसका अनुपात बड़ा गहरा है। वह तो अति सुंदर हो तो ही सुंदर हो सकता है, वैसा तो कोई चेहरा कहीं मिलता नहीं। सपने इतने सुंदर हैं कि यथार्थ उनसे फीका पड़ता है।
तो जिसकी भी कल्पना प्रगाढ़ है, वह कभी जीवन में तृप्त नहीं होता। उसकी कल्पना ही कहे चली जाती है. इसमें क्या रखा है? इसमें क्या रखा है? उसकी कल्पना तुलना का आधार रहती है। आंख बंद करने से कल्पना तो न मिटेगी, सपने तो न मिटेंगे। आंख बंद करने से तो जो ऊर्जा थोड़ी-बहुत बाहर चली जाती थी, सपने नहीं बनती थी, वह भी सपने बनने लगेगी। सारी ऊर्जा सपना बनने लगेगी।
तो जिस व्यक्ति ने वासना के खिलाफ ब्रह्मचर्य का आदर्श बनाया, वह ब्रह्मचर्य को तो उपलब्ध नहीं होता, एक मानसिक व्यभिचार को उपलब्ध होता है। उसके भीतर भीतर वासना दौड़ने लगती है। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि ब्रह्मचर्य घटित नहीं होता, लेकिन आदर्श की तरह कभी घटित नहीं होता। वासना को समझ कर वासना को जी कर, वासना के अनुभव से, वासना के रस में डूब कर प्रतीति से, साक्षात से, धीरे - धीरे तुम्हें दिखाई पड़ता है कि वासना से कुछ भी मिलने को नहीं है ।