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चक्कर में मत पड़ना, मगर मैं पड़ा। और एक के चक्कर में नहीं पड़ा; इस्लाम जितनी आज्ञा देता है, नौ स्त्रियां पूरे नौ विवाह किए, और भोगा! खूब नरक सहा। तुझसे भी मैं कहना चाहता हूं, लेकिन कहना नहीं चाहता। क्योंकि मैं जानता हूं तू भी पड़ेगा। मेरे कहने से कुछ होगा नहीं। बाप मेरा मरा था तो कह गया था शराब मत पीना, पर मैंने पी, खूब पी, और सड़ा। और तू भी सडेगा; क्योंकि जो मैं नहीं कर पाया, मेरा बेटा कर पाएगा-यह भी मुझे भरोसा नहीं है। इतनी ही याद रखना कि इतना मैंने तुझसे कहा था कि कहने से कोई सुनता नहीं, अनुभव से ही कोई सुनता है। तो एक बार भूल करे, कर लेना; खूब अनुभव कर लेना उसका लेकिन दुबारा वही भूल मत करना। और अगर तू मुझे मौका दे-वह कहने लगा तो इतना कहना चाहता हूं स्त्रियों की झंझट में तू पड़ेगा लेकिन एक समय में एक ही स्त्री की झंझट में पड़ना। अगर इतना भी संयम साध सके तो काफी है।
आदमी के भीतर कुछ होता है जो स्वाभाविक है। जवान होता आदमी तो वासना उठेगी। के सोचते हैं कि उन्हें कोई बड़ी भारी संपदा मिल गई, क्योंकि अब उनमें वासना के प्रति वैसा राग नहीं रहा, या उनमें अब वैराग्य उठ रहा है। यह बुढ़ापे का खेल है वैराग्य। राग जवानी का खेल है, वैराग्य बुढ़ापे का खेल है। जैसे राग स्वाभाविक है एक खास उम्र में, एक खास उम्र में वैराग्य स्वाभाविक
है।
इसलिए हिंदुओं ने तो ठीक कोटि ही बांट दी थी कि पच्चीस साल तक विदयाअर्जन, ब्रह्मचर्य; फिर पचास साल तक भोग, गृहस्थ-जीवन; फिर पचहत्तर तक वानप्रस्थ जीवन सोचना, सोचना की अब संन्यास लेना, अब संन्यास लेना। वानप्रस्थ यानी सोचना, कि जाना जंगल, जाना जंगल, जाना करना नहीं। थोड़े गए गांव के बाहर तक, फिर लौट आए-ऐसे बीच में उलझे रहना। फिर पचहत्तर के बाद संन्यास-अगर मौत इसके पहले न आ जाए तो! अक्सर तो मौत इसके पहले आ जाएगी और तुम्हें संन्यासी होने की झंझट नहीं पड़ेगी। अगर मौत न आ जाए इसके पहले, तो संन्यास। पचहत्तर के बाद हिंदुओं ने संन्यास रखा। हिंदुओं की सोचने की पद्धति बड़ी वैज्ञानिक है। क्योंकि पचहत्तर के बाद संन्यास वैसा ही स्वाभाविक है, जैसे जवान आदमी में वासना उठती, तरंगें उठती, महत्वाकांक्षा उठती-धन कमा लूं पद-प्रतिष्ठा कर लूं। ठीक एक ऐसी घड़ी आती है, जब जीवन- ऊर्जा रिक्त हो जाती है, झुक जाती है, तुम थक चुके होते तब वैराग्य उठने लगता। थकान वैराग्य ले आती है।
यह पद्धति हिंदुओं की साफ वैज्ञानिक है और इसीलिए बुद्ध और महावीर दोनों ने इस पद्धति के खिलाफ बगावत की। उन्होंने कहा कि जो वैराग्य पचहत्तर के बाद उठता, वह कोई वैराग्य है? वह तो यंत्रवत है। वह तो उठता ही है। वह तो मौत करीब आने लगी, उसकी छाया है। वह कोई वैराग्य है? वैराग्य तो वह है जो भरी जवानी उठता है।
बुद्ध और महावीर ने जो क्रांति की, उस क्रांति का भी तर्क यही है। वे कहते हैं, मान लिया, तुम्हारा हिसाब तो ठीक है, लेकिन जो पचहत्तर साल के बाद संन्यास उठेगा, वह कोई उठा? इस फर्क को समझना।
जैन या बौद्ध, उनकी संस्कृति श्रमण संस्कृति कहलाती है-श्रम वहां मूल्यवान है, पुरुषार्थ वहां