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तीन-तीन कोठियां हैं। मकान मैंने नहीं बनाए, मैंने मित्र बनाए। यह आदमी मकान बनाने में लग गया, इसलिए चूक हो गई। मकान तो मेरे लिए खुले खड़े हैं, कोठियां मेरे लिए तैयार हैं, जगह-जगह तैयार हैं। जहां आप कहें, वहा मेरी कोठी। हर नगर में मेरी कोठी!
एक तो ढंग है प्रेम का और एक ढंग है ज्ञान का। ज्ञान से अंततः विज्ञान पैदा हुआ। ज्ञान की आखिरी संतति विज्ञान है। विज्ञान से अंततः टेक्योलॉजी पैदा हुई। विज्ञान की संतति टेक्योलॉजी है; तकनीक है।
प्रेम से भक्ति पैदा होती है। भक्ति प्रेम की पुत्री है। भक्ति से भगवान पैदा होता है। वह दोनों दिशाएं बड़ी अलग हैं।
ज्ञान के मार्ग से जो चला है, वह कहीं न कहीं विज्ञान में भटक जाएगा। इसलिए तो पश्चिम विज्ञान में भटक गया। यूनानी विचारकों से पैदा हुई पश्चिम की सारी परंपरा। वह ज्ञान के उनकी बड़ी पकड थी। अरस्तृ प्लेटो! तर्क और विचार और ज्ञान! जानना है! जान कर रहेंगे! उस जानने का अंतिम परिणाम हुआ कि अणुबम तक आदमी पहुंच गया। मनै खोज ली और कुछ सार न आया। पूरब प्रेम से चला है। तो हमने समाधि खोजी। हमने कुछ अनूठा आकाश खोजा जहां सब भर जाता है, सब पूरा हो जाता है। अब तो पश्चिम परेशान है, अपने ही ज्ञान से परेशान है।
अलबर्ट आइंस्टीन मरने के पहले कह कर मरा है कि ' अगर मुझे दुबारा जन्म मिले तो मैं वैज्ञानिक न होना चाहूंगा कतई नहीं! प्लंबर होना पसंद कर लूंगा, वैज्ञानिक होना पसंद नहीं करूंगा। ' बड़ी पीड़ा में मरा है कि क्या सार? जानने का क्या सार? होने में सार है।
प्रेम भी जब तक झुके नहीं तब तक भक्ति नहीं बनता। ज्ञान भी अगर झुक जाए तो ध्यान बन जाता है। लेकिन ज्ञान झुकने को राजी नहीं होता। प्रेम झुकने को बड़ी जल्दी राजी हो जाता है।
अगर ज्ञान भी उतर गया होता गंगा में-समझ लो, उतरा नहीं, उतर गया होता-उसने भी निमंत्रण स्वीकार कर लिया होता, डुबकी मार ली होती, तो जैसे मोह प्रेम बन कर निकला, ज्ञान ध्यान बन कर निकल सकता था। लेकिन किनारे पर अकड़ा खड़ा रह गया, तो विज्ञान बन गया, तो टेक्योलॉजी बन गई। तो सब चीजें खराब होती चली गईं।
__ऐसा नहीं है कि ज्ञान की वृत्ति वाले व्यक्ति के लिए मार्ग नहीं; झुक जाए वह भी तो उसके लिए भी मार्ग है। प्रेमी झकता है तो प्रार्थना पैदा होती है; ज्ञानी झकता है तो ध्यान पैदा होता है। प्रार्थना भी परमात्मा पर ले जाती है; ध्यान भी परमात्मा पर ले जाता है। भाषा अलग होगी। जब ध्यानी परमात्मा पर पहुंचेगा तो वह कहेगा आत्मा! क्योंकि दूसरे का कोई उपाय नहीं है ध्यान में। जब प्रेमी परमात्मा पर पहुंचता है तो वह आत्मा नहीं कहता, वह कहता है, तुम्ही हो, मैं कहां!
ये सिर्फ भाषा के भेद हैं। दोनों एक ही महाशून्य पर पहुंच गए हैं। एक उसे आत्मा कहता है, एक उसे परमात्मा कहता है। ये भाषा के भेद हैं। अगर तुम्हारी विचार पर बहुत पकड़ हो तो ध्यान का मार्ग पकड़ो; डुबकी मगर लगाओ। इधर रही गंगा! यह मैं कहता हूं कि आ जाओ ले लो डुबकी! मैं तुम्हें नया कर दूंगा।