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जाएगा; ये शब्द काम न आये, कोई और शब्द काम आ जायेंगे; इससे न जल सका दीया, किसी और बात से जल जाएगा। लेकिन दीया जल सकता नहीं, क्योंकि शब्द और सत्य का मिलन होता नहीं । फिर भी, अगर तुमने शांति से सुना, तुमने अगर पीया, तो शब्द तो खो जाएगा, लेकिन शब्द के पास कुहासे की तरह जो आभामंडल था, वह तुम्हारे भीतर की अग्नि को प्रज्वलित कर देगा, तुम प्यासे हो जाओगे ।
जनक के आज के सूत्र, पीछे जो सूत्र थे उन्हीं के सिलसिले में हैं, उन्हीं की क्रमबद्धता में हैं। पीछे के चार सूत्र बड़े क्रांतिकारी थे। अब उन्हीं का विस्तार है। और वस्तुतः, पूरी महागीता में उन्हीं का विस्तार होगा। उन चार सूत्रों में जो मौलिक बात थी वह इतनी ही थी कि अष्टावक्र ने कहा है जनक को कि अब तू ज्ञान को उपलब्ध हो जा। और जनक कहते हैं, ज्ञान को उपलब्ध हो जाऊं? यह भी आप कैसी बात कह रहे हैं? ज्ञान को उपलब्ध हो गया हूं! यह आप कैसी बात कर रहे हैं कि ज्ञान को उपलब्ध हो जाओ, जैसे कि ज्ञान मुझसे कुछ भिन्न हो ! मेरा स्वभाव, मेरा बोध है। इति ज्ञानं! यही ज्ञान है। यह जो साक्षी का अनुभव हो रहा है, यही ज्ञान है। 'हो जाओ' में तो ऐसा लगता है भविष्य में होगा। 'हो जाओ' में तो ऐसा लगता है, कुछ साधन करना पड़ेगा, विधान करना पड़ेगा, अनुष्ठान करना पड़ेगा। 'हो जाओ' में तो ऐसा लगता है यात्रा करनी होगी; मंजिल भविष्य में है, मार्ग तय करना होगा।
जनक ने कहा, नहीं-नहीं! आप मुझे उलझाने की कोशिश मत करें और आप मुझे ऐसे प्रलोभन न दें। हो गया है, घट गया है। और जब कह रहे हैं कि घट गया है तो इसका यह अर्थ नहीं है पहले नहीं घटा था, अब घटा है। इसका इतना अर्थ है कि घटा तो सदा ही से था, मुझे ही बोध था, मुझे स्मरण न था। संपत्ति तो मुझमें पड़ी थी; मैं उधर आंख को न ले गया; मैं कहीं और खोजता
रहा।
मिलने में कोई अड़चन न थी, मेरी गलत खोज ही अड़चन थी । ऐसा नहीं था कि मेरा श्रम पूरा नहीं था, मेरी साधना पूरी नहीं थी, या मेरे साधन अधूरे थे, या मैंने पूरी जीवन-ऊर्जा को दाव पर न लगाया था-ऐसा नहीं था। सिर्फ जहां मुझे देखना था वहां मैंने नहीं देखा था। मैंने अपने भीतर नहीं देखा था। खोजने वाले ने खोजने वाले में नहीं देखा था, कहीं और खोज रहा था। देखा भीतर, हो गया। 'हो गया', कहना पड़ता है भाषा में; कहना तो ऐसा चाहिए. वही हो गया जो सदा से था। बुद्ध को ज्ञान हुआ तो बुद्ध से किसी ने पूछा क्या मिला? बुद्ध ने कहा, मिला कुछ भी नहीं। जो मिला ही हुआ था, उसका पता चला। जो मिला ही हुआ था, जिसे खोने का कोई उपाय ही नहीं है! अष्टावक्र बड़े प्रसन्न हो रहे होंगे सुन कर जनक के उत्तर। शायद ही कभी किसी शिष्य ने गुरु की आकांक्षा को इस परिपूर्णता से पूरा किया है। क्योंकि शिष्य की उत्सुकता तो होने में होती है
में होती है, विकसित होने में, समृद्ध होने में, ज्ञानवान होने में, शक्तिसंपन्न होने में, सिद्धि पाने में। अष्टावक्र बड़े प्रफुल्लित हुए होंगे। उनका मन बहुत मग्न हुआ होगा। क्योंकि जो जनक कह रहे थे वही अष्टावक्र सुनना चाहते थे।