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दावे शुरू हो जाते हैं। समन्वय का उसका दावा हो जाता है।
तुमने देखा, महावीर के साथ ऐसा हुआ महावीर ने कहा कि सभी सत्य की अभिव्यक्तियां सत्य हैं, आशिक सत्य हैं; ष्णेई अभिव्यक्ति पूर्ण सत्य नहीं है। इसलिए महावीर ने एक सिद्धात को जन्म दिया- स्यादवाद । स्यादवाद का अर्थ होता है मैं भी ठीक हूं, तुम भी ठीक हो, वह भी ठीक है। कुछ न कुछ तो ठीक सभी में है। इसलिए हम क्यों झगड़े ? स्यादवाद का अर्थ है. सभी के भीतर सत्य के अंश की स्वीकृति, ताकि विवाद न हो, व्यर्थ का झगड़ा न हो। लेकिन परिणाम क्या हुआ? स्यादवाद का अलग एक झगड़ा खड़ा हो गया ।
एक जैन मुनि से मैं बात कर रहा था। मैंने उनसे कहा कि आप मुझे संक्षिप्त में कहिए कि स्यादवाद का अर्थ क्या है? उन्होंने कहा, स्यादवाद का अर्थ है कि कोई भी पूर्ण सत्य नहीं है, सभी सत्य आशिक हैं। सभी में सत्य है थोड़ा थोड़ा। हम सभी के सत्य को देखते हैं; हम विवादी नहीं हैं, हम संवादी हैं।
मैंने थोड़ी देर इधर-उधर की बात की, और मैंने पूछा कि मैं आपसे एक बात पूछता हूं: स्यादवाद पूर्ण सत्य है या नहीं? उन्होंने कहा, बिलकुल पूर्ण सत्य है।
अब यह स्यादवाद पूर्ण सत्य है! अब अगर इसको कोई कहे कि यह आशिक सत्य है, यह भी आशिक सत्य है, तो झगड़ा खड़ा हो जायेगा। सब आशिक सत्य हैं, लेकिन जो मैं कह रहा हूं वह पूर्ण सत्य है- यही तो झगड़ा था। इसी झगड़े को हल करने को स्यादवाद खोजा गया। अब स्यादवाद भी झगड़ा करने वालों में एक हिस्सा हो गया, एक पार्टी। वह भी एक विवाद है। वह भी एक संप्रदाय है। अगर स्यादवाद समझा गया होता तो जैनों का कोई संप्रदाय होना नहीं चाहिए, क्योंकि स्यादवाद के आधार पर संप्रदाय खड़ा नहीं हो सकता । स्यादवाद का अर्थ ही यह है कि सभी में सत्य है और किसी में पूर्ण सत्य नहीं है; इसलिए संप्रदाय खड़े करने की कोई जगह नहीं है। संप्रदाय का तो मतलब ही यह होता है कि सत्य यहां है, वहां नहीं है। स्यादवाद ने तो संप्रदाय की जड़ काटी थी। लेकिन जैनों का एक संप्रदाय खड़ा है, जो अब स्यादवाद की रक्षा करता है।
इन तीनों के बीच तुमसे मैं समन्वय खोजने को नहीं कह रहा हूं। मैं तुमसे यही कह रहा हूं कि अगर तुम ध्यान की गहराइयों में गए, तुम साक्षी- भाव को उपलब्ध हुए तो अचानक तुम्हें दिखाई पड़ेगा कि इस साक्षी के शिखर पर बैठ कर पता चलता है: सभी मार्ग इसी पहाड़ के शिखर की तरफ आते हैं। उन मार्गों के प्रारंभ होने के बिंदु कितने ही भिन्न हों, उनकी अंतिम पूर्णाहुति एक ही शिखर पर होती है। सभी मार्ग वहीं आ जाते हैं जहां साक्षी भाव है। कैसे तुम आते हो, यह तुम्हारी मर्जी है-बैलगाड़ी पर, घोड़े पर, पैदल, हवाई जहाज पर, ट्रेन पर मोटर, बस में । कैसे तुम आते हो, यह तुम्हारी मर्जी है। अगर जरा भी समझदारी हो तो इसमें कोई झगड़ा करने की जरूरत नहीं - कोई घोड़े पर आ रहा है, कोई बैलगाड़ी पर आ रहा है, अपनी- अपनी मौज। कोई मस्जिद से आ रहा है, कोई मंदिर से आ रहा है, कोई प्रार्थना करके आ रहा है, कोई ध्यान करके आ रहा है, कोई नाच कर, कोई चुप बैठक | लेकिन अगर साक्षी भाव जग रहा है, अगर तुम्हारे भीतर जागरूकता की किरण फूट रही