________________
तू किसे छोड़ने की इच्छा कर रहा है? तेरे भीतर मैं एक इच्छा का अंकुर उठते देखता हूं । एवम् एव संघातविलयम् कुर्वन् लयम् व्रज।
और अगर ऐसा है तो एक बात छोड़ने जैसी है, वह है देहाभिमान | यह बात कि मैं देह हूं यह बात कि मैं मन हूं, यह बात कि मेरा कोई तादात्म्य है - यह छोड़ने जैसी है, तू इसका त्याग कर दे। देखें जाल! ऊपर से कह रहे हैं कि तेरे भीतर कोई भी त्याग की आकांक्षा उठे तो गलत है। और फिर बड़ी बारीकी से, बड़ी कुशलता से कहते हैं: - लेकिन फिर भी अगर तेरी मर्जी हो, छोड़ने का ही हो तो और कुछ छोड़ना तो व्यर्थ है, यह बात छोड़ दे कि मैं देह, कि मैं मन, कि मेरा किसी से तादात्म्य | ऐसे वे त्याग के लिए उकसाते हैं। बड़ी जटिल बात है!
तुमने कभी कुम्हार को घड़ा बनाते देखा ? क्या करता कुम्हार ? भीतर से तो सम्हालता है घड़े को। चाक पर रखता है मिट्टी को भीतर से सम्हालता है और बाहर से चोट मारता है। एक हाथ से चोट मारता है, एक हाथ से सम्हालता है। इसी से घड़े की दीवाल उठनी शुरू होती है। घड़ा बना शुरू होता है। भीतर से सम्हालता जाता है, बाहर से चोट करता जाता है।
कबीर ने कहा है : यही गुरु का काम है। एक हाथ से चोट करता, एक हाथ से सम्हालता है। अगर तुमने चोट ही देखी तो तुमने आधा देखा । तुमने अगर सम्हालना ही देखा तो भी तुमने आधा देखा, तो तुम गुरु की पूरी कीमिया से परिचित न हो सके फिर पूरा रसायन तुम्हें समझ में न आएगा। इधर चोट मारता, इधर समझा लेता। इतनी भी चोट नहीं मारता कि तुम भाग ही खड़े होओ। इतना भी नहीं समझा लेता कि तुम वही के वही रह जाओ जैसे आए थे। चोट भी किए चला जाता है, ताकि तुम बदलो भी। लेकिन चोट भी इतनी मात्रा में करता है - होमियोपैथी के डोज देता है, धीरे- धीरे ! एकदम ऐलोपैथी का डोज नहीं दे देता कि तुम या तो भाग ही खड़े होओ या खत्म ही हो जाओ। बड़ी छोटी मात्रा में, चोट करता है! देखता है कितनी दूर तक सह सकोगे, उतनी चोट कर देता है । फिर रुकता है; देखता है कि ज्यादा हो गई, तिलमिला गए, भागे जा रहे हो, बिस्तर - विस्तर बांध रहे हो, तो फिर थोड़ा समझा लेता है।
देखा! 'स्वभाव' के साथ वही तो किया न । अब उन्होंने फिर बिस्तर वगैरह खोल कर रख दिया है। अब वे फिर मजे -मजे से बैठे हुए हैं, सिर घुटाए हुए अब उनको कोई अड़चन नहीं है। अब फिर चोट की तैयारी है। अब उन पर फिर मार पड़नी चाहिए।
....... एक हाथ से सम्हालो, एक हाथ से चोट करते जाओ।
तो वे उससे कहते, 'ऐसा कर कि तू छोड़। धन इत्यादि छोड़ना तो छोटी बातें हैं, मैं तुझे बड़ी बात छोड़ने की बताता हूं । तू देहाभिमान छोड़ वे'
संघातविलयम् !
यह जो देह का संघात है, इसको लय कर दे ! मैं देह हूं ऐसे भाव को विलीन कर दे। इस प्रकार देहाभिमान को मिटा कर तू मोक्ष को अभी प्राप्त हो जा सकता है।
देखना बारीकी : 'मोक्ष को प्राप्त हो जा सकता है, अगर देहाभिमान को छोड़ दे ! फिर कारण