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पर जहां तक भी उडूं इस प्रश्न का उत्तर नहीं है। मृत्तिमहद आकाश में ठहरें कहां पर शून्य है सब और नीचे भी नहीं संतोष। मिट्टी के हृदय से दूर होता ही कभी अंबर नहीं है। इस व्यथा को झेलता आकाश की निस्सीमता में घूमता, फिरता, विकल, विभ्रांत पर कुछ भी न पाता प्रश्न जो गढ़ता गगन की शून्यता में गज कर सब ओर मेरे ही श्रवण में लौट आता। मैं न रुक पाता कहीं फिर लौट आता हूं पिपासित शून्य से साकार सुषमा के भुवन में युद्ध से भागे हुए उस वेदना-विह्वल युवक-सा जो कहीं रुकता नहीं बेचैन जा गिरता अकुंठित तीर-सा सीधे प्रिया की गोद में। नींद जल का स्रोत है छाया सघन है नींद श्यामल मेघ है शीतल पवन है। किंतु जग कर देखता हूं कामनाएं वर्तिका-सी बल रही हैं जिस तरह पहले पिपासा से विकल थीं प्यास से आकुल अभी भी जल रही हैं। प्राण की चिरसगिनी यह वहि इसको साथ लेकर