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जिनको तुम ज्ञानी कहते हो, उन्होंने महंगा सौदा नहीं किया। वे बड़े होशियार हैं। उन्होंने कंकड़ छोड़ा और हीरा बचा लिया। तुम्हारे साथ सिवाय दुख और नर्क के है ही क्या? तुम हो, तो सिवाय पीड़ा और चिंता के है ही क्या? तुम तो काटे हो छाती में चुभे अपनी ही । इसे बचा - बचा कर क्या करोगे? इसको जो समर्पण कर देता है, वही कोई विरला..!
आत्मानमद्वयं कश्चिज्जानति जगदीश्वरम् ।
वही कभी, क्वचित, कोई जान पाता प्रभु को और जो उसे जान लेता....
यवेति तत्स कुरुते।
फिर वह कुछ नहीं करता। फिर तो वह जिसे करने योग्य मानता है - वह, जिसमें तुमने अपने को समर्पित कर दिया - वह जिसे करने योग्य मानता है, वही करता है। फिर उसकी अपनी कोई मर्जी नहीं रह जाती।
यत् वेति तत् स कुरुते।
- वह तो वही करता है जो प्रभु करवाता है।
खूब जवाब दिया जनक ने। ठीक-ठीक जवाब दिया । अष्टावक्र नाचे होंगे हृदय में, प्रफुल्लित हुए होंगे इसी जवाब की तलाश थी। इसी उत्तर की खोज थी।
तस्य भयम् कुत्रचित् न।
- और फिर ऐसे व्यक्ति को कहां भय है!
जिसने परमात्मा में अपने को छोड़ दिया, उसे कहां भय है! भय तो तभी तक है जब तक तुम लड़ रहे हो सर्व से। और भय स्वाभाविक है, क्योंकि सर्व के साथ तुम जीत सकते ही नहीं। तो भय बिलकुल स्वाभाविक है। मौत घटने ही वाली है। हार होने ही वाली है। तुम्हारी यात्रा पहले से ही पराजित
है।
सर्व से लड़ कर कौन कब जीतेगा? अंश अंशी से लड़ कर कैसे जीतेगा? तो भयभीत है, कैप रहा है। जैसे छोटा-सा बच्चा अपने बाप से लड़ रहा है- कैसे जीतेगा? फिर वही छोटा बच्चा अपने बाप का हाथ पकड़ लिया और बाप के साथ चल पड़ा - अब कैसे हारेगा?
परमात्मा के साथ अपने को एकस्वर, एकलीन, एक तान में बांध देने पर - फिर कैसा भय?
तस्य भयम् कुत्रचित् न!
शास्त्र कहते हैं : 'ब्रह्मवित् ब्रह्मेव भवति-जों ब्रह्म को जानता, वह स्वयं ब्रह्म हो जाता है।
' फिर कैसा भय है? जानते ही वही हो जाता है जो हम जानते हैं।
तुमने क्षुद्र को जाना तो क्षुद्र हो गये, विराट को जाना तो विराट हो जाओगे। तुम्हारा जानना तुम्हारा होना हो जाता है। ब्रह्मवित् ब्रह्मेव भवति! और शास्त्र यह भी कहते : 'तरति शोकमात्मवित्। ' और जिसने स्वयं को जान लिया, वह समस्त शोकों के पार हो जाता है। फिर उसे कोई भय नहीं, दुख नहीं, पीड़ा नहीं ।
सब दुख, सब पीड़ा, सब भय, सब नर्क अहंकार - केंद्रित हैं। अहंकार के बिना यह सब ऐसे ही