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कहते हैं : ज्ञानी की बस एक ही सामर्थ्य है कि वह इच्छा और अनिच्छा दोनों से मुक्त हो जाता है। वह न तो कहता, ऐसा हो; और न कहता है, ऐसा नहीं हो। वह कहता है, जैसा हो मैं राजी। जैसा भी हो, मैं देखता रहूंगा। मैं तो द्रष्टा हूं-तो कैसा भी हो, फर्क क्या पड़ता है? हार हो तो ठीक, जीत हो तो ठीक। हार, तो तेरी; जीत, तो तेरी। सफलता, तो तेरी, असफलता, तो तेरी। अब मैं देखता रहूंगा। जीवन को देखूगा मृत्यु को भी देगा।
एक बार साक्षी उठ जाये, तो सारा जीवन रूपांतरित हो जाता है। प्रभु-मर्जी!
जीसस सूली पर लटके हैं, आखिरी क्षण कहने लगे 'हे प्रभु, यह तू मुझे क्या दिखा रहा है? क्या तूने मेरा साथ छोड़ दिया?' लेकिन चौंके खुद की ही बात समझ में आयी कि यह मैंने क्या कह दिया, शिकायत हो गयी! यह तो यह हो गया कहने का मतलब कि मेरी मर्जी तू पूरी नहीं कर रहा है। यह तो मेरी मर्जी को मैंने ऊपर रख दिया और प्रभु की मर्जी को नीचे रख दिया। यह तो मैंने उसे सलाह दे दी। यह तो मैंने 'सर्व' को नियंत्रण करने की चेष्टा कर ली।
तो कहा कि नहीं-नहीं, क्षमा कर! क्षमा कर दे, भूल हो गयी। तेरी मर्जी पूरी हो मुझे तो भूल ही जा। मेरी बात को ध्यान में मत रखना। बस तेरी मर्जी पूरी हो! प्रभु-मर्जी!
प्रभु -मर्जी-अगर प्रभु शब्द का उपयोग तुम्हें रुचिकर लगता हो। अरुचिकर लगता हों-कोई जरूरत नहीं है, शब्द ही है। सर्वेच्छा-कहो 'सर्व की इच्छा। समग्र-इच्छा-समग्र की, इच्छा। अस्तित्व की मर्जी। जो तुम्हें कहना हो। इतनी ही बात खयाल रखो कि व्यक्ति की मर्जी नहीं, समष्टि की। जब तक व्यक्ति की मर्जी से जीते हों-संसार। जब समष्टि की मर्जी से जीने लगे तो मोक्ष। मोक्ष यानी स्वयं से मोक्ष। जो है, है। जो हो, हो। इसमें मैं बीच में न आऊं। जो दृश्य देखने को मिले, देख लेंगे-मरुस्थल तो मरुस्थल, मरूदयान तो मरूदयान। इसमें मैं बीच में न आऊंगा। जो हो, हो; जो है, है। अन्यथा की चाह नहीं। इच्छा- अनिच्छा के विवर्जन का यही अर्थ है. न विधि न निषेध। विधिनिषेध का कंकर नहीं है ज्ञानी; गुलाम नहीं है। ज्ञानी किसी अनुशासन को नहीं जानता सर्वानुशासन में लीन हो जाता है।
'कोई ही आत्मा को अदवय और जगदीश्वर-रूप में जानता है..। '
'कोई ही कभी विरला, आत्मा को अदवय और जगदीश्वर-रूप में जानता है। वह जिसे करने योग्य मानता है, उसे करता है। उसे कहीं भी भय नहीं है। '
आत्मानमदवयं कश्चिज्जानाति जगदीश्वरम्।
यद्वेति तत्स कुरुते न भयं तस्य कुत्रचित्।। समझो, कभी कोई विरला ऐसी महंत घड़ी को उपलब्ध होता है जहां बूंद को सागर में लीन कर देता है; जहां अहं को शून्य में डुबा देता है, जहां सीमा को असीम में डुबा देता है! कोई विरला, कभी! धन्यभागी है वैसा विरला पुरुष! होना तो सभी को चाहिए, लेकिन हम होने नहीं देते। हम अइंगे डालते रहते हैं। होना तो सभी को चाहिए। सभी का स्वभाव-सिद्ध अधिकार है। लेकिन हम हजार अड़चनें खड़ी करते हैं, हम होने नहीं देते।