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________________ वहां तुम व्यर्थ ही ऊधम क्यों मचाते हो, व्यर्थ का उत्पात क्यों करते हो? . 'मैं कर्ता नहीं हूं, ऐसे विश्वास-रूपी अमृत को पी कर सुखी हो।' जनक ने पूछा है : कैसे हम सुखी हों? कैसे सुख हो? कैसे मुक्ति मिले? कोई विधि नहीं बता रहे हैं अष्टावक्र। वे यह नहीं कह रहे हैं कि साधो इस तरह। वे कहते हैं. देखो इस तरह। दृष्टि ऐसी हो, बस! यह सारा दृष्टि का ही उपद्रव है। दुखी हो तो गलत दृष्टि आधार है। सुखी होना है तो ठीक दृष्टि...। '...विश्वास-रूपी अमृत को पी कर सुखी हो।' इसमें विश्वास की भी परिभाषा समझने जैसी है। अविश्वास का अर्थ होता है : तुम अपने को समग्र के साथ एक नहीं मानते। उसी से संदेह उठता है। अगर तुम समग्र के साथ अपने को एक मानते हो तो कैसा अविश्वास! जहां ले जाएगा अस्तित्व, वहीं शुभ है। न हम अपनी मर्जी आये, न अपनी मर्जी जाते हैं। न तो हमें जन्म का कोई पता है क्यों जन्मे? न हमें मृत्यु का कोई पता है—क्यों मरेंगे? न हमसे किसी ने पूछा जन्म के पहले कि 'जन्मना चाहते हो?' न कोई हमसे मरने के पहले पूछेगा कि 'मरोगे, मरने की इच्छा है?' सब यहां हो रहा है। हमसे कौन पूछता है? हम व्यर्थ ही बीच में क्यों अपने को लाएं? जिससे जीवन निकला है, उसी में हम विसर्जित होंगे। और जिसने जीवन दिया है. उस पर अविश्वास कैसा? जहां से इस संदर जीवन का आविर्भाव हआ है, उस स्रोत पर अविश्वास कैसा? जहां से ये फूल खिले हैं, जहां ये कमल खिले हैं, जहां ये चांद-तारे हैं, जहां ये मनुष्य हैं, पशु-पक्षी हैं, जहां इतना गीत है, जहां इतना संगीत है, जहां इतना प्रेम है-उस पर अविश्वास क्यों? विश्वास का अर्थ है: हम अपने को विजातीय नहीं मानते, परदेसी नहीं मानते; हम अपने को इस अस्तित्व के साथ एक मानते हैं। इस एक की उदघोषणा के होते ही जीवन में सुख की वर्षा हो । जाती है। '...ऐसे विश्वास-रूपी अमृत को पी कर सुखी हो।' विश्वासामृतं पीत्वा सुखी भव। अभी हो जा सुखी! पीत्वा सुखी भव! इसी क्षण हो जा सुखी! 'मैं एक विशुद्ध बोध हूं, ऐसी निश्चय-रूपी अग्नि से अज्ञान-रूपी वन को जला कर तू वीतशोक हुआ सुखी हो।' अभी हो जा दुख के पार! एक छोटी-सी बात को जान लेने से दुख विसर्जित हो जाता है कि मैं विशुद्ध बोध हूं, कि मैं मात्र साक्षी-भाव हूं, कि मैं केवल द्रष्टा हूं। अहंकार का रोग एकमात्र रोग है। मैंने सुना है, दिल्ली के एक कवि-सम्मेलन में मुल्ला नसरुद्दीन भी सम्मिलित हुआ। जब कविसम्मेलन समाप्त हुआ और संयोजक पारिश्रमिक बांटने लगे तो वह तृप्त न हुआ। पारिश्रमिक जितना वह सोचता था उतना उसे मिला नहीं। वह बड़ा नाराज हुआ। उसने कहा, 'जानते हो, मैं कौन हूं? मैं पूना का कालीदास हूं!' संयोजक भी छंटे लोग रहे होंगे। उन्होंने कहा, 'ठीक है, लेकिन यह तो बताइये 70 अष्टावक्र: महागीता भाग-1
SR No.032109
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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