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चैत्यवंदन मुनिवंदन और प्रार्थना का स्वरूप अथवा, मन, वचन, काया की एकाग्रता ये प्रणिधान त्रिक है । शेष त्रिकों का अर्थ सुगम है । इस प्रकार दसत्रिक पूर्ण हुए ॥१९॥ सच्चित्तदव्वमुज्झण-मच्चित्तमणुज्झणं मणेगत्तं; इग - साडि उत्तरासंगु, अंजली सिरसिअ जिण - दिट्ठे ॥ २० ॥
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सचित वस्तुओं का त्याग करना, अचित वस्तु रखना, मन की एकाग्रता, एकशाटक उत्तरासंग, और जिनेश्वर प्रभु के दर्शन होते ही ललाट पर हाथ जोडना ||२०|| इअ पंचविहाभिगमो, अहवा मुच्चंति रायचिण्हाईं; खग्गं छत्तोवाणह, मउडं चमरे अ पंचमए ॥ २१ ॥
ये पांच प्रकार का अभिगम है, अथवा तलवार, छत्र, मोजडी, (जुते) मुगुट और पांचवा चँवर ये राजचिन्ह बाहर रखना चाहिए ॥ २१॥
वंदति जिणे दाहिण, दिसिट्ठिआ पुरिस वामदिसि नारी; नवकर जहन्न सट्ठिकर, जिट्ठ मज्झुग्गहो सेसो ॥ २२ ॥
दाहिनी ओर खड़े रहकर पुरूष और बाँयी ओर खड़ी रहकर स्त्रियाँ जिनेश्वर परमात्मा को वंदन करे । जघन्य - नौ हाथ, उत्कृष्ट ६० हाथ, शेष - मध्यम अवग्रह होता है ॥२२॥ नमुक्कारेण जहन्ना, चिइवंदण मज्झ दंड - थुई - जुअला; पण दंड - थुई - चउक्कग, थयपणिहाणेहिं उक्कोसा ॥ २३ ॥
भाष्यत्रयम्