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विगइगया संसट्टा, उत्तमदव्वा य निव्विगइयंमि; कारणजायं मुत्तुं, कप्पंति न भुत्तुं जं वृत्तं ॥ ३९ ॥
नीवियाते (३० वीं गाथा के अनुसार) तथा ३६ वीं गाथा में कहे हुए संसृष्ट द्रव्य, और उत्तम द्रव्य ( ३८ वीं गाथा में दर्शाये गये) ये तीनो ही प्रकार के द्रव्य यद्यपि विगइ-विकृति है । फिर भी नीवि के प्रत्याख्यान में कुछ कारण उत्पन्न हुआ हो, उस कारण को छोडकर शेष नीविओं में (खाना) भक्षण करना नही कल्पता है । तथा प्रकार के प्रबल (मुख्य) कारण बिना ये द्रव्य नीवि में नहीं हैं । (इस कारण से संबंधित सिद्धान्त की (निशिथ भाष्य की ) गाथा आगे दर्शायी गयी है |) ॥३९॥
विगइं विगइ भीओ, विगइगयं जो अ भुंजए साहू; विगईं विगइ - सहावा, विगइं विगइ बला नेइ ॥ ४० ॥
विगति स (याने दुर्गति से अथवा असंयम से) भयभीत साधु विगई और निवीयतो का ( तथा उपलक्षण से संसृष्ट द्रव्य, व उत्तमद्रव्यों का) भक्षण करता है, ( उस साधु को ) विगई तथा उपलक्षण से नीवियाते आदि तीनो ही प्रकार के द्रव्य भी (विगई = ) विकृति के (इन्द्रियो को विकार उपजाने के) स्वभाव वाले होते है । अत: वह (विगति स्वभाववाली)
श्री पच्चक्खाण भाष्य
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