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छंदेण-णुजाणामि, तहत्ति तुब्भंपि वट्टए एवं; अहमवि खामेमि तुमं, वयणाई वंदणरिहस्स ॥ ३४ ॥ ___ छंदेण-अणुजणामि-तहत्ति-तुब्भंपि-वट्टए-एवं और 'अहमवि खामेमि तुमं' ये ६ वचन गुरु के होते है ॥३४॥ पुरओ पक्खासन्ने, गंता चिट्ठण निसीअणा-यमणे; आलोयण पडिसुणणे, पुव्वा-लवणे अ आलोए ॥ ३५ ॥ तह उवदंस निमंतण, खद्धा-ययणे तहा अपडिसुणणे; खद्धत्ति य तत्थ गए, किं तुम तज्जाय नोसुमणे ॥ ३६ ॥ नो सरसि कहं छित्ता, परिसंभित्ता अणुट्ठियाइ कहे; संथार-पायघट्टण, चिट्ठ-च्च-समासणे आवि ॥ ३७ ॥
पुरोगमन (पुरोगन्ता) पक्षगमन-आसन्नगमन (पृष्ठगमन) तथा पुरःस्थ (=पुर:तिष्ठन्) पक्षस्थ (पक्षेतिष्ठन्) पृष्ठस्थ (आसन्नतिष्ठन्)-तथा पुरो निषीदन पक्षेनिषीदन आसन्न निषीदिन (पृष्ठनिषीदिन) (ये नौ आशातनाएँ तीन तीन के त्रिक रुप है) तथा पूर्व आचमन पूर्व आलोचन- अप्रतिश्रवण, पूर्वालापन, पूर्वालोचन, पूर्वोपदर्शन, पूर्व निमंत्रण, खद्धदान-खद्धादन, अप्रतिश्रवण, खद्धं (खद्ध भाषण) तत्रगत, कि (क्या), तुं, तज्जात, (तज्जात वचन) नोसुमन नोस्मरण कथाछद, परिषद भेद, अनुत्थित कथा, संथारापाद घट्टनं संथारावस्थान उच्चासन और समासन आदि =यह भी ये ३३ आशातनाए है ॥३५-३६-३७॥ श्री गुरूवंदन भाष्य