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आयारस्स उ मूलं, विणओ सो गुणवओ अ पडिवत्ती; साय विहि-वंदनाओ, विही इमो बारसावत्ते ॥ ३ ॥
आचारका मूल (धर्म का मूल) विनय है, और वह विनय गुरू की भक्ति रूप है, और वह ( गुणवंत गुरू की ) भक्ति विधिपूर्वक वंदन करने से होती है, और वह विधि यह (जो आगे कही जाएगी ) है, अर्थात् वह विधि द्वादशावर्त्त वंदन में कही जायेगी ॥३॥
तइयं तु छंदण - दुगे, तत्थ मिहो आइमं सयलसंघे; बीयं तु दंसणीण य, पयद्विआणं च तइयं तु ॥ ४ ॥
तीसरा द्वादशावर्त वंदन दो वंदनक द्वारा (दो वांदणे देने के द्वारा) किया जाता है । तथा इन तीन वंदन में प्रथम फिट्टावंदन संघ में संघ को परस्पर किया जाता है । दुसरा छोभवंदन (खमासमणवंदन) साधु-साध्वी को किया जाता हैं । और तीसरा द्वादशावर्त्त वंदन आचार्य आदि पदवीधर मुनिओं को किया जाता है ||४||
वंदण - चिइ - किईकम्मं, पूआकम्मं च विणयकम्मं च; कायव्वं कस्स व ? केण, वावि ? काहेव ? कइ खुत्तो ? ॥५ ॥ कइ ओणयं कई सिरं, कइहिं व आवस्सएहिं परिसुद्धं ? ; कइ दोस विप्पमुक्कं, किइकम्मं कीस कीरइ वा ॥ ६ ॥
वंदनकर्म, चितिकर्म, कृतिकर्म, पूजाकर्म और विनयकर्म (ये पांच गुरूवंदन के नाम है) वह किसको करने चाहिए ?
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भाष्यत्रयम्