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जिनेश्वर प्रभु के नाम, नाम जिनेश्वर, जिनेश्वर प्रभु की प्रतिमा स्थापना जिनेश्वर, जिनेश्वर परमात्मा के जीव द्रव्य जिनेश्वर, और समवसरण में विराजमान भाव जिनेश्वर ॥५१॥ अहिगय- जिण - पढमथुइ, बीया सव्वाण तइअ नाणस्स; वेयावच्चगराणं, उवओगत्थं चउत्थथुइ ॥ ५२ ॥
अधिकृत जिनकी प्रथम, सर्व जिनेश्वरों की दूसरी, ज्ञान की तीसरी तथा वेयावच्च करने वाले देवों के उपयोग के लिए (तथा स्मरणार्थे) चौथी स्तुति है ॥५२॥ पावखवणत्थ इरिआइ, वंदणवत्तिआइ छ निमित्ता; पवयण सुर सरणत्थं, उस्सग्गो इअ निमित्तट्ठ ॥ ५३ ॥
पापों का क्षय करने के लिए इरियावहिया प्रतिक्रमणका, वंदन - वत्तिया विगेर छ निमित्तों का, और शासन देव के स्मरण के लिए काउस्सग करना, इस प्रकार आठ निमित्त हैं ||५३|| चउ तस्स उत्तरीकरण- पमुह सद्धाइआ य पण हेऊ; वेयावच्चगरत्ताइ तिन्नि ईअ हेउ बारसगं ॥ ५४ ॥
" तस्स उत्तरी करण" आदि चार "श्रद्धा" विगेरे पांच और वेयावच्च करना विगेरे तीन, इस प्रकार बारह कारणसाधन हैं ॥५४॥
अन्नत्थयाइ बारस, आगारा एवमाइया चउरो; अगणी- पणिदि छिंदण - बोहि- खोभाइ डक्को य ॥ ५५ ॥ श्री चैत्यवंदन भाष्य
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