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भावार्थ : औदारिक मिश्रकाय योग में आहारक षट्क के बिना सामान्य से 114 प्रकृतियों का बंध होता है ।
तीर्थंकर नामकर्म आदि पाँच प्रकृतियों के बिना मिथ्यात्व में 109 का बंध होता है और सास्वादन में मनुष्यतिर्यंच आयुष्य तथा सूक्ष्म आदि तेरह के बिना 94 प्रकृतियों का बंध होता है ॥१५॥
अणचउवीसाइ विणा, जिणपणजाअ सम्मि जोगिणो सायं; । विणु तिरिनराउ कम्मे वि, एवमाहारदुगि ओहो ॥ १६ ॥
भावार्थ : औदारिक मिश्रकाय योग में चौथे गुणस्थानक में अनंतानुबंधी आदि 24 के बिना तथा तीर्थंकर नामकर्म आदि पाँच युक्त 75 प्रकृतियों का बंध होता है ।
सयोगी गुणस्थानक में सिर्फ एक शाता का बंध होता
है ।
कार्मण काययोग में भी तिर्यंच व मनुष्य आयुष्य के बिना इसी प्रकार बंध होता है । आहारक के दो योगों में भी ओघबंध होता है ॥१६॥
सुरओहो वेउव्वे, तिरिअनराउ - रहिओ अ तम्मिस्से; । वेअतिगाइम बिअतिअ, कसाय नव दुचउपंचगुणा ॥१७॥
भावार्थ : वैक्रिय काययोग में देवगति की तरह सामान्य से बंध होता है । वैक्रिय मिश्रकाय योग में बंध स्वामित्व - तृतीय कर्मग्रंथ
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