________________
बंध स्वामित्व - तृतीय कर्मग्रंथ
बंधविहाण - विमुक्कं, वंदिय सिरिवद्धमाण - जिणचंदं; । गइ - आइसुं वुच्छं, समासओ बंधसामित्तं ॥ १ ॥
भावार्थ : कर्मबंध के सभी प्रकारों से बंधनमुक्त बने जिनेश्वरों में चंद्र समान महावीर प्रभु को वंदन करके गति आदि 62 मार्गणाओं में बंध का स्वामित्व कहूँगा ॥१॥ गइ इंदिए य काए, जोए वेए कसाय नाणे यः । संजम दंसण लेसा भव सम्मे सन्नि आहारे ॥ २ ॥
भावार्थ : चौदह मूल मार्गणाएँ हैं- (१) गति (२) इन्द्रिय (३) काय (४) योग (५) वेद (६) कषाय (७) ज्ञान (८) संयम (९) दर्शन (१०) लेश्या (११) भव्य (१२) सम्यक्त्व (१३) संज्ञी और (१४) आहारी ॥२॥
जिण सुरविवाहारदु, देवाउ य निरय सुहुम विगलतिगं; । एगिंदि थावरायव-नपु मिच्छं हुंड छेवट्टं ॥ ३॥ अणमज्झागि संघयण - कुखगइनियइत्थिदुहगथीणतिगं; । उज्जोअ तिरिदुगं तिरि, -नराउ नरउरलदुग - रिसहं ॥ ४ ॥ बंध स्वामित्व - तृतीय कर्मग्रंथ
३९