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भावार्थ : वहाँ हास्यादि छह का विच्छेद होने से अनिवृत्तिकरण गुणस्थानक में 66 कर्मप्रकृतियों का उदय होता है । वहाँ वेदत्रिक और संज्वलन त्रिक के उदय का विच्छेद होता है, अतः सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानक में 60 प्रकृति का उदय होता है, वहाँ चौथे संज्वलन लोभ के उदय का विच्छेद होता है अतः उपशांत मोह गुणस्थानक में 59 प्रकृति का उदय रहता है । वहाँ ऋषभनाराच और नाराच इन दो संघयणों के उदय का विच्छेद होता है ॥१९॥
सगवन्न खीणदुचरिमि, निद्ददुगंतो अ चरिमि पणवन्ना; । नाणंतरायदंसण, चउ छेओ सजोगि बायाला ॥ २० ॥
भावार्थ : क्षीणमोह गुणस्थानक के द्विचरम समय में 57 प्रकृतियों का उदय होता है । निद्वा द्विक का अंत होने पर क्षीणमोह के अंतिम समय में 55 प्रकृतियों का उदय होता है । वहाँ ज्ञानावरणीय व अंतराय की 10 और दर्शनावरणीय की 5 प्रकृतियों के उदय का विच्छेद होता है, तथा तीर्थंकर नामकर्म का उदय होता है, अतः सयोगी गुणस्थानक में 42 प्रकृतियों का उदय होता है ||२०||
तित्थुदया उरला-थिर, -खगइदुग परित्ततिग छ संठाणा; । अगुरुलहु-वन्नचउनिमिण - तेअकम्माई संघयणं ॥ २१ ॥
कर्मग्रंथ
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