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क्रमशः बंध-विच्छेद होता है अर्थात् सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानक में 17 प्रकृति का बंध होता है ॥११॥ चउदसणुच्चजसनाण, विग्घदसगंति सोलसुच्छेओ । तिसु सायबंध छेओ, सजोगि बंधंतुऽणंतो अ ॥ १२ ॥
भावार्थ : दर्शनावरणीय की 4, उच्च गोत्र, यश, ज्ञानावरणीय की 5 और अंतराय की 5, इन सोलह प्रकृतियों का 10वें गुणस्थानक के अंत में बंधविच्छेद होता है । अर्थात् 11-12 व 13वें गुणस्थानक में सिर्फ शातावेदनीय का ही बंध होता है ॥१२॥ उदओ विवागवेअण-मुदीरणमपत्ति ईह दुवीससयं; । सतरसयं मिच्छे मीस-सम्म-आहार-जिणणुदया ॥१३॥
भावार्थ : कर्म के फल का अनुभव करना, उसे उदय कहते हैं । उदय काल को प्राप्त नहीं हुए कर्मदलिकों को प्रयत्नपूर्वक उदय में लाना, उसे उदीरणा कहते हैं ।
उदय और उदीरणा में कुल 122 प्रकृतियाँ हैं । मिथ्यात्व गुणस्थानक में मिश्रमोहनीय, समकित मोहनीय, आहारक द्विक और जिननामकर्म- इन 5 प्रकृतियों का उदय नहीं होने से 117 प्रकृतियों का ही उदय होता है ॥१३॥ सुहुमतिगायव मिच्छं, मिच्छं तं सासणे इगारसयं । निरयाणुपुब्वि-णुदया, अणथावर-इगविगलअंतो ॥१४॥ कर्मस्तव - द्वितीय कर्मग्रंथ