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गुणानुरागी, मदरहित, अध्ययन-अध्यापन की रुचि वाला, जिनेश्वर आदि का भक्त हमेशा उच्च गोत्र का ही बंध करता है । इसके विपरीत आचरण करने वाला नीच गोत्र का बंध करता है ॥ ६० ॥ जिणपूआ-विग्घकरो, हिंसाइ-परायणो जयइ विग्धं, । इअ कम्मविवागोऽयं, लिहिओ देविंदसूरीहिं ॥ ६१ ॥
जिनेश्वर परमात्मा की पूजा में अन्तराय/विघ्न करने वाला, हिंसा आदि कार्यों में परायण/रत जीव अन्तराय कर्म का बंध करता है । इस प्रकार कर्मविपाक नामक प्रथम कर्मग्रंथ श्री देवेन्द्रसूरिजी म. सा. द्वारा लिखा गया है ॥ ६१ ॥
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कर्मग्रंथ