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गोअं दुहुच्चनीअं, कुलाल इव सुघडभुंभलाइअं । विग्धं दाणे लाभे, भोगुवभोगेसु विरिए अ ॥ ५२ ॥
जिस प्रकार कुम्हार दो प्रकार के घड़े बनाता है । एक प्रकार के घड़े में मदिरा आदि भरी जाने से वह अशुभ होता है और दूसरे प्रकार के घड़े में दूध आदि भरे जाने से वह शुभ होता है । उसी प्रकार गोत्रकर्म भी दो प्रकार के होते हैं- (१) उच्च गोत्रकर्म (२) नीच गोत्रकर्म ।
अन्तराय कर्म पाँच प्रकार के हैं
(१) दानान्तराय (२) लाभान्तराय (३) भोगान्तराय (४) उपभोगान्तराय (५) वीर्यान्तराय ॥५२॥ सिरिहरिअ - समं एअं, जह पडिकूलेण तेण रायाई, । न कुणइ दाणाइअं, एवं विग्घेण जीवो वि ॥ ५३ ॥
अन्तरायकर्म राजभण्डारी के समान है । जिस प्रकार भण्डारी की प्रतिकूलता के कारण राजा दान नहीं कर पाता है, ठीक उसी प्रकार अन्तराय कर्म के उदय से जीव भी दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य में प्रवृत्ति नहीं कर पाता है ॥५३॥
पडिणीअत्तण- निण्हव, उवघाय-पओस - अंतराएणं, । अच्चासायणयाए, आवरणदुगं जिओ जयइ ॥ ५४ ॥
कर्मविपाक - प्रथम कर्मग्रंथ
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