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अगुरुलघु नामकर्म के उदय से समस्त जीवों को अपना शरीर न भारी लगता है, न हल्का लगता है ।
तीर्थंकर नामकर्म के उदय से जीव त्रिभुवन में पूजनीय बनता है, जिसका उदय केवलज्ञानी (?) भगवंतों को होता है
॥४७॥
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अंगोवंग-निअमणं, निम्माणं कुणइ सुत्तहारसमं । उवघाया उवहम्मइ, सतणुवयव - लंबिगाईहिं ॥ ४८ ॥
सूत्रधार (सुधार) के समान अंगोपांग की उचित स्थान पर व्यवस्थित रूप से संयोजना करने वाले कर्म को निर्माण नामकर्म कहते है ।
उपघात नामकर्म के उदय से जीव स्वयं के शारीरिक अवयवों (पडजीभी आदि) के द्वारा दुःखी होता है ॥४८॥ बितिचउपणिदिअ तसा, बायरओ बायरा जिआ थूला, । निअनिअपज्जत्तिजुआ, पज्जत्ता लद्धि करणेहिं ॥ ४९ ॥
जिस कर्म के कारण जीव धूप-छाँव, सुख - दुःख आदि के कारण गमनागमन करता है, उसे त्रस नामकर्म कहते हैं ।
त्रस नामकर्म का उदय द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवों को होता है ।
बादर नामकर्म के उदय से जीव बादर (स्थूल) पर्याय प्राप्त करता है ।
कर्मविपाक - प्रथम कर्मग्रंथ
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