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अभिग्रह के अनुसार प्रतिदिन वहाँ जाकर उन मल्लिनाथ प्रभु की त्रिकाल पूजा करने लगे। उसे जिनभक्त जानकर विचरण करते हुए साधु व साध्वी जी भी उसके घर आने लगे। वह भी उनकी पूजा, सत्कार करने लगा। नित प्रति साधुओं के सत्संग से श्रेष्ठ बुद्धिवाले सेठ-सेठानी ने श्रावक धर्म को ग्रहण किया। वे सर्व विधि के ज्ञाता हो गये।
___ (गा. 19 से 31) इसी समय श्री वीर भगवंत उस पुरिमताल नगर के शकट मुख नामक उद्यान में काउसग्ग ध्यान में रहे। वहाँ ईशानेन्द्र जिनेश्वर प्रभु को वंदन करने हेतु आए। उसने मल्लिनाथ प्रभु के बिंब की पूजा करते जाते उस वागुर सेठ को देखा। तब ईशानेन्द्र ने कहा कि, 'अरे सेठ! इन प्रत्यक्ष जिनेश्वर का उल्लंधन करके जिनेश्वर के बिम्ब को पूजने के लिए आगे कहाँ जाते हो? ये भगवान्! श्री वीर स्वामी चरम तीर्थंकर हैं। वे छद्मस्थपने में विचरण करते हुए यहाँ प्रतिमा धारण करके रहे हुए हैं।' यह सुनकर वागुर सेठ ने मिच्छमि दुक्कडम् देकर तीन प्रदक्षिणा देकर कूर्म (कछुए) की तरह शरीर संकुचित करके भक्ति से प्रभु को वंदना की। पश्चात् ईशानेन्द्र और वागुर सेठ प्रभु को नमन करके अपने स्थान पर गए।
__(गा. 32 से 35) वहाँ से विहार करके प्रभु उष्णाक नाम के नगर की ओर चले। मार्ग में सद्य परिणीत और अत्यन्त विद्रूप आकृतियुक्त कोई वरवधू सामने मिले। उनको देखकर गोशाला बोला कि, 'अहो! देखो तो सही! इन दोनों के कैसे मोटे पेट हैं ? मोटे दांत हैं, हडपची और गर्दन लंबी है, पीठ में कूबड़ निकली हुई है और नाक चपटी है। अहो! विधाता की जोड़ी बनाने की खूबी भी कैसी है ? कि जिसने वर और वधू दोनों की समान जोड़ी मिला दी है। मुझे तो लगता है कि वह विधाता भी कौतुकी है। इस प्रकार गोशाला उनके सामने जाकर बार बार कहने लगा और विदूषक के समान बारबार अट्टहास करने लगा। यह देखकर वरवधू के साथ रहे व्यक्ति क्रोधायमान हो गए। उन्होंने गोशाला को चोर की तरह मयूरबंध द्वारा बांधकर बांस के जाल में फेंक दिया। गोशाला प्रभु को उद्देश्य करके बोला कि, हे स्वामी! मुझे बांध दिया, फिर भी आप मेरी उपेक्षा कैसे कर रहे हो? आप अन्य लोगों पर भी कृपालु हो, तो क्या अपने सेवक पर
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
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