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इससे पूर्व की भांति गांव के लोगों ने कूटा एवं पहले के जैसे ही गांव के वृद्ध लोगों ने छुड़ाया। वहाँ से विहार करके तपस्वी प्रभु बहुशाल नाम के गांव में गये । वहाँ शालवन नाम के उद्यान में प्रतिमा धारण करके रहे । वहाँ शालार्या नाम की एक व्यंतरी थी, उसने किसी भी कारण बिना क्रोध करके प्रभु के ऊपर कर्म का घात करने वाले कितनेक उपसर्ग किए। उपसर्ग करते करते जब वह श्रांत हो
तब उसने प्रभु की पूजा की । फिर वहाँ से विहार करके वीरप्रभु लोहार्गल नाम के गाँव में आए। वहाँ जितशत्रु नाम के राजा थे। उस राजा का किसी राजा के साथ विरोध चल रहा था । वहाँ राजपुरुषों ने मार्ग में प्रभु को गोशाला सहित आते देखा। तब 'आप कौन है ? ऐसा उन्होंने पूछा । परंतु मौनधारी प्रभु कुछ भी बोले नहीं।' तब 'ये शत्रु के व्याक्ति हैं, ऐसा जानकर उनको पकड़ कर जितशत्रु राजा को सौंपा। वहाँ अस्थिक गाँव से उत्पल नैमित्तिक आया हुआ था। उसने प्रभु को पहचाना एवं वंदना की और जितशत्रु राजा को सर्व हकीकत कही। तब राजा ने भी भक्तिपूर्वक प्रभु को वंदना की ।
(गा. 11 से 18 )
वहाँ से विहार करके प्रभु पुरिमताल नगर में पधारे। वहाँ पहले ऐसा बनाव बना था कि वहाँ एक वागुर नामक धनाढ्य सेठ रहता था । उसके भद्रा नामकी प्रिया थी, जो कि वंघ्या (बांझ ) थी, जिससे वह संतान के लिए देवीदेवताओं की मानता कर करके थक गई थी। एक बार वे दोनों शकटमुख नाम के उद्यान में गए। वहाँ उन्होंने देवों की भांति पुष्प चुनने आदि की चिरकाल तक क्रीड़ा की । क्रीड़ा करते करते वे एक विशाल जीर्ण मंदिर के नजदीक आये । कौतुक से दोनों ने उसमें प्रवेश किया। अंदर दृष्टि को अमृत के समान श्री मल्लिनाथ प्रभु की प्रतिमा को देखकर दोनों ने श्रद्धापूर्वक उनको वंदना की । तत्पश्चात् प्रार्थना की कि 'हे देव! आपकी कृपा से यदि हमारे पुत्र या पुत्री होगी, तो हम इस चैत्य का उद्धार करायेगे एवं तब से ही सदैव आपके भक्त होकर रहेंगे।' ऐसा कहकर वे अपने घर आये । वहाँ नजदीक में ही एक अर्हन्तभक्त व्यंतरी का निवास स्थान था । उसके प्रभाव से भद्रा के उदर में गर्भ रह गया । इससे सेठ को देव पर प्रतीति अर्थात् विश्वास हो गया। गर्भ के दिन से ही आरंभ करके उन्होंने अत्यन्त हर्ष से दुर्गति से अपनी आत्मा की तरह उस देवालय का उद्धार करवाना प्रारंभ कर दिया और बुद्धिमान् वागुर सेठ ने
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
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