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सर्व लोक को अवलोकन करने वाला परमावधिज्ञान उत्पन्न हुआ। श्री वीरप्रभु को देवभव में भी जब जब सहज अवधिज्ञान हुआ था, तब वे एकादशांग सूत्रार्थ के धारक हुए थे। यहाँ रात्रि व्यातीत हुई, तब कटपूतना भी शांत हो गई। तब वह बहुत पश्चात्ताप करके भक्तिपूर्वक प्रभु की पूजा करके स्वस्थान पर चली गई।
(गा. 614 से 624) वहाँ से विहार करके प्रभु भद्रिकापुरी में आए। वहां दीक्षा के पश्चात् छट्ठा चौमासा करने हेतु प्रभु तपाचरण करके वहाँ रहे। छः मास के पश्चात् गोशाला वहाँ आकर मिला, पूर्व की तरह प्रभु की सेवा करता हुआ वह साथ में रहा। प्रभु ने विविध अभिग्रह पूर्वक चार मासक्षमण किये। वर्षाकाल निर्गमन करके नगरी के बाहर पारणा किया।
(गा. 625 से 627) इति आचार्य श्री हेमचंद्रसूरि विरचित त्रिषष्ठिशलाकापुरुषचरित्र महाकाव्य के दशम पर्व में श्री महावीर प्रथम षड्वर्ष छद्मस्थ विहारवर्णन नामक तृतीय सर्ग
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)